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________________ ३६० गाथा-५२ आत्मप्रेम की बात चलती है, उसके समक्ष शरीर को नरक जैसा सिद्ध किया। देखो न ! आहा...हा...! नव द्वार झरते हैं। इसके परिणाम में भी विकार है। मेरा प्रभु आत्मा है, उसमें वह कहाँ है । समझ में आया? और इस शरीर की क्रिया हम (करते हैं).... शरीर धर्म साधन.... 'शरीर आध्यं खलु धर्म साधनं'.... यहाँ तो कहते हैं नरक का द्वार, स्थान है। साधन कहाँ से होगा? शरीर अच्छा होवे तो धर्म साधन होता है.... धूल में भी नहीं होता। शरीर से धर्म होता है – ऐसा तुझसे किसने कहा? समझ में आया? अन्दर में दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा का शुभभाव हो, उससे धर्म नहीं है तो फिर शरीर से धर्म कहाँ से लाया? तुझे आत्मा के स्वभाव का प्रेम नहीं, भगवान आत्मा वीतरागकन्द है, उसकी तुझे श्रद्धा नहीं - ऐसा यहाँ कहते हैं। देखो! मुमुक्षु – कहने में कुछ बाकी नहीं रखा। उत्तर – बाकी नहीं रखा? हे मूर्ख! अन्तिम है.... यह तेरा शरीररूप घर, दुष्ट कर्म शत्रुओं का बनाया हुआ... है, वह कैदखाना है। इसमें अन्तिम है । हे मूर्ख! यह तेरा शरीररूप घर, दुष्ट कर्म शत्रुओं द्वारा बनाया हुआ एक कैदखाना है, इन्द्रियों के बड़े पिंजरे से बना हुआ है। इन्द्रियों के बड़े पिंजरे में कैद किया है। नसों के जाल से लिपटा हुआ है.... नसों की जाल यह... नसें हैं न नसें? खून और माँस से लिप्त है.... खून और माँस से यह शरीर अन्दर पूरा सब लिप्त है। चमड़े से ढंका हुआ गुप्त है.... यह चमड़े से ढंका हुआ है। आयुष्यकर्म की बेड़ी से बँधा हुआ है। आयुकर्म है, तब तक शरीर छूटेगा नहीं। ऐसे शरीर को कैदखाना जान, व्यर्थ प्रेम करके पराधीनता के कष्ट मत उठा। इसमें से बाहर निकलने का यत्न कर। ऐसा शरीर धूल-मिट्टी.... भगवान अन्दर चैतन्य आनन्दकन्द है, उसका प्रेम छोड़कर तुझे यह प्रेम होता है, उसे छोड़ दे! आत्मा का कल्याण करना हो तो देह चाहे जिस पर्याय में वर्तता हो, वह जड़ है। चाहे जिस प्रकार वर्तता हो – निरोगता, रोगीपना, सरोगता, वाणी निकलती हो - यह सब परचीज है। भगवान आत्मा निर्विकल्प चैतन्यतत्त्व का प्रेम करके इस शरीर में उपजना छोड़ दे। समझ में आया? हैं ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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