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________________ गाथा - ५१ इसलिए यहाँ अवतार लिया है। जैसे यह नरक का शरीर है, अथवा नरकस्थान अच्छा नहीं लगता; उसी प्रकार यह शरीर नरक जैसा है - ऐसा यहाँ बतलाना है । आहा... हा... ! दूसरी बात तो कहीं रह गयी । ३५८ यहाँ तो आत्मा के सामने एक शरीर रखा। शरीर 'जज्जरु' नरक के स्थान जैसा है। कहो, समझ में आया? देखो, इसमें जरा लिखा है, शरीर के ऊपर से त्वचा को हटा दिया जावे तो स्वयं को इस शरीर से घृणा हो जाएगी.... जरा चमड़ी उतारे, वहाँ आहा...हा... ! दुर्गन्ध लगती है। ऐसा मानो चाट लूँ या खा लूँ, क्या करूँ ? इसे ऐसा लगे, इसे जरा चमड़ी उतारकर दिखावे तो आहा... हा... ! ऊँ हू.... इसके भाग (टुकड़े) करके दे, एक तपेली में माँस, एक में इसका खून, एक में इसकी चमड़ी, एक में इसकी हड्डियाँ, एक में दाँत (ऐसे) सब अलग भाग बतावे (तो) ऐसा कहे । अर... र... ! यह शरीर ? तब यह शरीर किसका शरीर है ? भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का कन्द है, आहा... हा...! ऐसा बतलाने के लिए बात की है, हाँ ! घृणा या द्वेष कराने के लिए नहीं । भाई ! तू अतीन्द्रिय आनन्द का कन्द है न, प्रभु ! उसका प्रेम छोड़कर तुझे ऐसे नरक के जैसे शरीर के प्रेम में फँसकर जिन्दगी बिताता है, इसी में । चौबीस घण्टे इसी की सम्हाल, इसे खिलाना, इसे पिलाना, इसे नहलाना, इसे धुलाना और सुलाना .... प्रातः हो, वहाँ वापस यह (सब) । यह भी तेरा समय चला जाता है, यह होली नरक जैसा शरीर है। ऐसा यहाँ तो कहते हैं। ऐसे आनन्दकन्द के सन्मुख देखे बिना इसी - इसी में तेरा (जीवन) जाता है । आहा....हा...! समझ में आया ? करोड़ों रोगों का स्थान है। कहो ! शरीर में बालपना परवशरूप से (पराधीनता से ) बहुत ही कष्ट से बीतता है । एक तो शरीर का बालकपना हो, बालकपना होता है न शरीर का ? (वह) पराधीनता में जाता है। युवानी में घोर तृष्णा शान्त करने के लिए धर्म की भी परवाह नहीं करता.... युवावस्था में कमाने का होता है, बस ! कमाओ... यहाँ जाओ, यहाँ जाओ, यहाँ जाओ, भटको... ! वृद्धावस्था में अशक्त होकर घोर शारीरिक और मानसिक वेदना सहता है। लो !
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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