SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३५३ के लम्पट की कितने आसक्त होते हैं, देखो न ! हैं ? आहा...हा...! देखो न ! एक आता है न? उन सूरदास का नहीं आता। वे थे न? वेश्या के पास जाते, सर्प था, वेश्या के घर जाते सर्प था, उन्हें ऐसा लगा कि रस्सी है, ऐसा विचार कर सर्प को पकड़कर अन्दर गया, ऊपर चढ गया! हैं? सर्प है या रस्सी. भल गया. वेश्या के प्रेम में... आता है या नहीं? शशीभाई! हमने तो सब सुना है, हमने कहीं ऐसा पढ़ा नहीं है। ऐसा प्रेम! फिर उसने आँखें फोड़ डाली परन्तु आँखें फोड़ने से क्या होता है ? समझ में आया? अपने को यह रूप नहीं देखना, यह रूप (नहीं देखने के लिये) आँखें फोड़ डालो परन्तु आँखें कहाँ रोकती हैं? वे तो जड़ हैं तेरा प्रेम पर में है, इसे छोड़ने के लिए अन्तर में प्रेम कर, तब बाहर की आँखें फोड़ी कहा जाएगा। आँखें, बाहर का क्या काम है वहाँ? कहते हैं, आत्मा के रस में ऐसा रसिक हो जाना चाहिए कि मान-अपमान.... बहुत बोल लिये हैं न? जीवन-मरण, कंचन सुख में समानभाव रखना चाहिए। जैसे धतूरा खानेवाला प्रत्येक जगह पीला रंग देखता है.... देखो! धतूरा पीनेवाला सब चीजों को पीली देखता है। इसी प्रकार धर्मी को सभी चीजें अनित्य और क्षणिक दिखती हैं। एक नित्यानन्द भगवान आत्मा दृष्टि में आने पर सब चीजें क्षणिक, नाशवान् है । मैं अविनाशी आत्मा हूँ, एक अविनाशी मैं हूँ, बाकी सब नाशवान है। समझ में आया? शुद्ध निश्चयनय से उसे जिस प्रकार अपना आत्मा परमात्मरूप शुद्ध दिखता है, उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा परमात्मरूप शुद्ध दिखता है। निश्चय से, हाँ! निश्चयदृष्टि से जैसा अपना आत्मा पुण्य-पाप के रागरहित ज्ञात होता है, वैसी ही दृष्टि से दूसरे आत्मा को भी वह देखता है। उसका आत्मा उन पुण्य-पाप के राग, शरीर, कर्मरहित (है), उसे आत्मा जानता है। समझ में आया? अपना भगवान आत्मा शुभ-अशुभ राग, बन्धन और फल रहित है - ऐसी दृष्टि जहाँ धर्मात्मा को (हुई).... योगसार अर्थात् आत्मा के योग की हुई.... वह दूसरे आत्माओं को (भी वैसा ही देखता है)। वह आत्मारूप से तो इसे स्वीकार करता है, दूसरे आत्माएँ भी पुण्य-पाप के रागवाले हैं – ऐसा नहीं। पुण्य-पाप का राग तो आस्रव है। कर्म, शरीर तो अजीव है, उनका आत्मा है, वह तो ज्ञानानन्द अखण्डानन्द प्रभु है। ऐसे धर्मी, अपने आत्मा को जैसे निर्विकारी देखता है, वैसे ही दूसरों
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy