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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) ३४५ है और विषयभोग भोगता रहता है, इससे अधिक खराब काम दूसरा क्या होगा ? वह विष पीकर जीवन चाहता है। जहर पीकर जीवन चाहता है। भगवान अमृत के आनन्दकन्द में अन्दर डूबे नहीं, अन्दर में आवे नहीं और बाहर में भटक भटक भटक करता है, वह जहर पीकर जीवन चाहता है। तृष्णा बढ़ जाये, मरने तक तृष्णा बढ़ जाये, जाये नहीं वापस, वापस फिरे नहीं। क्यों हरिभाई ? फिर भाई की भी माने नहीं । इसलिए कहते हैं कि इस सब तृष्णा को छोड़ और भगवान आत्मा शुद्ध चिदानन्द की श्रद्धा, ज्ञान, अनुभव कर । इसमें तेरे कल्याण का पन्थ है। बाकी दूसरी जगह कल्याण नहीं है सब अकल्याण है । ( श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव !) वात्सल्यमूर्ति मुनिराज के सम्बोधन के उपाय जैसे माता बालक को शिक्षा दे, तब कभी ऐसा कहती है कि बेटा तू तो बहुत सयाना है.... तुझे यह शोभा देता है ? और कभी ऐसा भी कहती है कि तू मूर्ख है, पागल है; इस प्रकार कभी मधुर शब्दों से शिक्षा देती है तो कभी कड़क शब्दों से उलाहना देती है, परन्तु दोनों समय माता के हृदय में पुत्र के हित का ही अभिप्राय है । इसीलिए उसकी शिक्षा में भी कोमलता ही भरी है । इसी प्रकार धर्मात्मा सन्त बालकवत् अबुध शिष्यों को समझाने के लिए उपदेश में कभी मधुरता से ऐसा कहते हैं कि हे भाई! तेरा आत्मा सिद्ध जैसा है, उसे तू जान ! और कभी कठोर शब्दों में कहते हैं कि अरे मूर्ख ! पुरुषार्थहीन नपुंसक! अपनी आत्मा को अब तो पहचान ! यह मूढ़ता तूझे कब तक रखनी है ? अब तो छोड़ ! इस प्रकार कभी मधुर सम्बोधन से तो कभी कठोर शब्दों से उपदेश देते हैं, परन्तु दोनों प्रकार के उपदेश के समय उनके हृदय में शिष्य के हित का ही अभिप्राय है; इसलिए उनके उपदेश में कोमलता ही है, वात्सल्य ही है। – पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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