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________________ ३०६ गाथा-४२ लिखा है। १७४ पृष्ठ पर। समझ में आया? (पृष्ठ) १४२ वाँ है न? जो अभी तक अनन्त आत्माएँ जो हुए, उन्होंने आत्मा देखा तो अन्दर में देखा है। या बाहर में देखा है ? या बाहर के द्वारा देखा है? कहो, समझ में आया? यहाँ तो उत्थापते हैं। वह तो शुभ में भगवान कैसे थे - उनके स्मरण में निमित्तमात्र है. परन्त वहीं मान ले कि यह भगवान है और इनसे मुझे आत्मलाभ होगा..... तो आत्मा तो यहाँ है, वहाँ कहाँ था? समझ में आया? तीर्थ और मन्दिर में भटका-भटक (करता है)। मानो वहाँ से मोक्ष मिल जाएगा; मानो वहाँ से आत्मा आ जाएगा, सम्यग्दर्शन-ज्ञान... सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो अन्दर दृष्टि करे तब प्राप्त हो ऐसा है । समझ में आया? अद्भुत बात, भाई! समझ में आया? यह तो फिर दूसरी बात की है। यहाँ तो अपने इतना (लेना है कि) वर्तमान में परमात्मा का दर्शन करनेवाला भी अपने शरीर के अन्दर ही देखता है; भविष्य में भी जो कोई परमात्मा को देखेगा, वह अपने शरीररूपी मन्दिर में ही देखेगा। तीन काल की बात सिद्ध की है। अपने इसमें से सार-सार (लेते हैं)। समझ में आया? अनन्त काल में जितने आत्मा हुए - मोक्ष को प्राप्त हुए या सम्यग्दर्शन-ज्ञान को प्राप्त हुए, वे अन्दर आत्मा के भीतर में से -अन्तर से प्राप्त हुए हैं । कहो, ठीक होगा? हैं ? और वर्तमान में पाते हैं, वे भी अन्तर में दर्शन करने से पाते हैं; भविष्य में पायेंगे तो अन्तर में इस आत्मा को देखने से अन्दर आत्मा मिलेगा। इस आत्मा को कोई भूतकाल में बाहर से देखकर पाये, वर्तमान में फिर अन्दर से देखकर पाये और भविष्य में फिर दूसरे प्रकार से पायें – ऐसा होगा? समझ में आया? चाहे तो तीर्थ हो सम्मेदशिखर और चाहे तो शत्रुञ्जय और चाहे तो मन्दिर (होवे), सब (वे) भगवान सर्वज्ञ परद्रव्य कैसे थे? – उनके स्मरण के लिए निमित्त है। समझ में आया? आत्मा का स्मरण, तो स्मरण कब होता है ? कि पहले उसका अवग्रह, विचारधारा होवे तब न? तो उसे पकड़कर विचारधारा कहाँ से प्रगटे? अन्दर लक्ष्य करे, तब प्रगटे या बाहर के लक्ष्य से प्रगटे? तो किसके यह सब बड़े मन्दिर बनाते हो? यह तीन-तीन लाख के मन्दिर ! अच्छा होता है, रामजीभाई कहते हैं, तुम्हारे अहमदाबाद में अच्छा होगा, हाँ! बड़े सेठ कहलाते हो। भले उसके-लड़के के पिता तो कहलाओ। कहो, समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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