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________________ २९६ गाथा-४० उसकी नजर चने पर होती है, कितने चने हुए? ऐसी (नजर) होती है। पत्तों और जड़ पर नहीं होती। खेत होवे न दो-पाँच? उसकी नजर वहाँ (चने पर होती है)। यहाँ तो चना क्यों लिया है ? चना खाने में तुरन्त ही मिठास लगती है न? कच्चा भी अच्छा लगता है और पका भी अच्छा लगता है। वह चना जैसा जाये और वे गुच्छे हुए हों न? उस चने पर उसकी नजर होती है, उन पत्तों पर नहीं। कितने पके हैं ? चने कितने हुए हैं ? पूरे खेत में फिरे तो चने पर नजर (होती है)। फल अच्छा आया है चने का फल अच्छा आया है – ऐसा कहते हैं। समझ में आया? वह वृक्ष पत्ते, मूल को नहीं देखता और कहता है कि इस खेत में से पाँच मण चना निकलेगा। ऐसा कहे, लो! इस एक बीघा में पाँच मण चना (निकलेगा), चना आयेगा, ऐसा कहते हैं। पत्तियाँ आयेंगी - ऐसा वह कहता है ? दूसरा दृष्टान्त दिया है, सोने में मणि जड़ी हुई हो। स्वर्ण में मणि जड़ी होती है न? जब झवेरी के पास बेचने ले जाओ तब वह केवल मणियों को देखता है... ऊँचा झवेरी अन्दर मणि-मणि देखता है। सोना किसलिए (देखे)? उसे तो मणि लेना है। मणि, मणि, मणि.... मणि स्वर्ण पर नजर नहीं और स्वर्णवाले के पास जाओ तो मणि नहीं देखता। वह सोना-सोना देखता है, बात सत्य है। समझ में आया? आहा...हा...! इसी प्रकार भगवान आत्मा जहाँ देखो वहाँ मैं जाननेवाला.... जाननेवाला.... जाननेवाला.... मेरे जानने में ज्ञान का फल जानने का आया है, उसे वह देखता है। समझ में आया? दृष्टान्त ठीक किया है। इन लोगों का कुछ चलता होगा, चना... चना... चना... देखे, मीठे सरस लगते हैं। चने पर नजर है, वह चने देखता है। इसी प्रकार आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है – ऐसी जिसे आत्मा की श्रद्धा और भान हुआ है, वह जहाँ हो वहाँ आत्मा का ही पाक देखता है। मैं जानने-देखनेवाला, जानने-देखनेवाला, जानने-देखनेवाला, जानने-देखनेवाला.... दूसरा मुझमें है नहीं, मैंने दूसरा जाना-देखा नहीं, मैं ही मुझे जानने -देखनेवाला हूँ। कहो, समझ में आया? यह सब (लिया है)। व्यवहार निश्चय की अपेक्षा से असत्य है। किसके साथ मैत्री और किसके साथ (क्लेश) करना? समझ में आया? एक
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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