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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २८१ आहा...हा...! दया, दान, भक्ति, व्रत, तप के परिणाम वे अजीव... एक समय की पर्याय भी पूरा जीव नहीं । व्यवहार से जीव वह भी निश्चय से अनात्मा । समझ में आया ? ऐसा जीव- अजीव का भेदज्ञान उसे मोक्ष का कारण जान । जान, ऐसा भगवान ने कहा है । देखा ? है न? एउ भणई ऐसा भगवान ने कहा है । ऊपर आ गया सब, भगवान तीर्थंकर ऐसा कहते हैं। संक्षिप्त शब्द में वह शब्द साथ नहीं (लिया होगा) समझ में आया ? बन्ध और मोक्ष, दो हुए। बन्ध और मोक्ष, बन्ध में सम्बन्ध अजीव का है, मोक्ष का सम्बन्ध यहाँ स्वभाव के साथ है। इन दोनों को इसे जानना चाहिए। दो का ज्ञान भलीभाँति करना चाहिए। यह भेदज्ञान की प्रधानता से बात है। समझ में आया ? इसलिए जिसे संसार, राग, बन्ध, वह पर है और आत्मा ज्ञायक स्व है - उसका जहाँ भेदज्ञान होता है, उसे ही मुक्तिका कारण होता है, दूसरे को मुक्ति का कारण नहीं होता है। ( श्रोता: प्रमाण वचन गुरुदेव !) मुनिदशा में भावलिङ्ग-द्रव्यलिङ्ग का सुमेल भाई ! साधु किसे कहा जाता है ? आत्मज्ञानसहित तीन कषाय चौकड़ी का अभाव जिनके अन्तर में परिणमित हुआ है, जिनकी दशा को अतीन्द्रिय आनन्द के प्रचुर स्वसम्वेदन की मुहर - छाप लगी है, बाह्य में जिनके वस्त्र का टुकड़ा भी न हो ऐसी निर्विकार नग्नदशा हो, वे ही 'साहूणं' पद में आते हैं। उनके सिवा जो वस्त्र - पात्रधारी तथा अन्य परिग्रहवन्त हैं, उन्हें वीतरागता के मार्ग में साधु ही नहीं कहा जा सकता। - भावरहित अकेला द्रव्यलिङ्ग हो, वह सच्चा साधु नहीं कहलाता । जहाँ अन्तर में आनन्द का ज्वार आया है, ऐसा भावलिङ्ग-भावमुनिपना प्रगट हुआ है, वहाँ उसके साथ द्रव्यलिङ्ग होता ही है; बाह्य नग्नदशा न होकर, वस्त्रसहित हो, उसे भावलिङ्ग प्रगट हो ऐसा कभी नहीं हो सकता तथा वस्त्ररहित नग्नदशारूप द्रव्यलिङ्ग है तो उससे भावलिङ्ग प्रगट होगा - ऐसा भी नहीं है । - पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी -
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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