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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २५१ वह मुझमें नहीं है। आहा...हा...! अपने में नहीं है, उसे करके मानना कि यह हम मुनि और श्रावक हैं, (यह) मिथ्यादृष्टि है, यहाँ तो ऐसा कहते हैं। समझ में आया या नहीं? जो अपने स्वरूप में नहीं; स्वरूप तो शुद्ध चैतन्य है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान शान्ति भी निर्मल है। उसमें व्यवहार व्रतादि का जो रत्नत्रय किया, वह उसमें तो नहीं है। समझ में आया? सम्यग्दृष्टि की दृष्टि तो आत्मा पर है। राग/व्यवहार पर है ? यह तो व्यवहार पर दृष्टि है, व्यवहार आचरण वह हमारी क्रिया, हम साधु, हमें साधु मानो.... हम मनवाते हैं। अट्ठाईस मलगण पालते हैं. वह पाले तो.... अभी तो अट्राईस मूलगुण भी नहीं है। यह तो अट्ठाईस मूलगुण पालता हो – पंच महाव्रत हो, बारह व्रत हो तो कहे हम मुनि हैं, वह मूढ़ है। व्यवहार में मुनिपना कहाँ से आया? समझ में आया? वह तो राग की क्रिया है। राग की क्रिया में मुनिपना श्रावकपना-समकितपना, मोक्ष का मार्ग कहाँ से आया? ___'जीवविमुक्को सबओ दंसणमुक्को य होइ चलसवओ' दृष्टान्त दिया, उस ओर अन्तिम गाथा है । जीवरहित (शरीर) मुर्दा है। भावपाहुड़ का मोक्ष अधिकार है। कन्दकन्दाचार्यदेव कहते हैं. जीवरहित तो सब मर्दे हैं। शरीर.... इसी प्रकार सम्यग्दर्शन (अर्थात्) आत्मा के भान बिना जीव का जीवन ही नहीं है, वह मुर्दा है। आत्मा शुद्ध अखण्डानन्द की प्रतीति, अनुभव के बिना यह तेरे शुभ आचरण की क्रियाएँ सब मुर्दा हैं। इसमें जीवन नहीं है – ऐसा यहाँ तो कहते हैं । आहा...हा... ! समझ में आया? जीवविमुक्को सबओदंसणमुक्को यहोइ चलसवओ। सवओ लोयअपुजो लोउत्तरयम्मि चलसवओ॥१४३॥ क्या कहा? जैसे जो जीवरहित शरीर अपूज्य है, मुर्दा है; वैसे ही भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति के सम्यग्दर्शन-ज्ञान बिना यह व्यवहार व्रतादि सब मुर्दे हैं और वे पूज्य नहीं हैं। जैसे जीवरहित मुर्दा पूज्य नहीं है, वैसे सम्यग्दर्शनरहित अकेले व्रतादि, तपादि क्रियाकाण्ड, वे सब मुर्दे हैं; वे लोक में अपूज्य हैं । आहा...हा... ! अद्भुत कहा, भाई! मुर्दा लोक में माननीय नहीं गिना जाता.... क्या कहते हैं ? भगवान आत्मा का जीवन – कारणप्रभु, कारणजीव का आश्रय लिये बिना, उसकी दृष्टि-ज्ञान-चारित्र किये बिना अकेले व्रत, पंच महाव्रत और अट्ठाईस मूलगुण आदि आगमानुसार पालन करे तो भी वह सब माननीय नहीं है। आहा...हा...! हैं ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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