SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २५ यह तो अनादि का आत्मा है, समझ में आया? और यह आत्मा सत्तारूप से अनादि और उसकी पर्याय भी अनादि की है, मलिन पर्याय अनादि की है। समझ में आया? गन्ने का रस और छिलका दोनों इकट्ठे हैं। पहले छिलका नहीं था और रस के साथ छिलका लगा. ऐसा है? सेरडी- गन्ना... समझ में आता है? इसी प्रकार खान में सोना और पत्थर दोनों साथ ही है। पहले सोना था और फिर पत्थर लगा, ऐसा है नहीं। इसी प्रकार दूध में पानी और दूध दोनों दूहने में इकट्ठे होते हैं। पानी बाद में दूध में आया ऐसा नहीं है, हाँ! दूसरे डाल दें वह नहीं, अन्दर पानी होता ही है। जब उबलते हैं तब मावा होकर पानी उड़ जाता है। पानी और दूध का भाग दोनों इकट्ठे ही हैं। इसी प्रकार तल तिल और तेल, खल और तेल, तिल में होती है न खल? खल और तेल... पहले, बाद में किसे कहना? खल... खल। खल अर्थात् कुंचा और तेल दोनों साथ ही हैं। भिन्न करो तो हो सकते हैं। इसी प्रकार जीव अनादि है। चकमक में अग्नि अनादि है। चकमक में अग्नि और चकमक दोनों अनादि के साथ हैं। समझ में आया? इसी प्रकार संसार की अशुद्ध मलिनदशा, .....जो आत्मा शुद्ध द्रव्यरूप अनादि से है.... 'शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन' ध्रुव द्रव्य ध्रुवरूप से अनादि है और उसकी पर्याय मलिन वह अनादि की है, पहले निर्मल थी और बाद में मलिन हुई - ऐसा है नहीं, ऐसा होता नहीं। कच्चे चने को दले, सेंके तो उगते नहीं परन्तु जहाँ तक कच्चा है वहाँ तक उगता है। यह चने की कच्चेपन की दशा पहले से ही है। समझ में आया? यह चना होता है न? चना, पहले से ही वह कच्चा है। ऐसा नहीं है कि पहले सिंका हुआ था और फिर कच्चापन लगा - ऐसा नहीं है। इसी प्रकार आत्मा संसार की विकारी दशावाला, वस्तु से तो शुद्ध चिदानन्द, सचिदानन्दस्वरूप है, तथापि इस पर्याय में विकार कैसे आया? (यह) बड़े-बड़े त्यागियों को भी शंका थी, बहुतों को शंका है, लो न! पूरा होगा इसमें। देखो! समझ में आया? ऐ...ई...! कर्म के कारण मलिन, कर्म के कारण मलिन - ऐसा भी नहीं है। समझ में आया? यह जीव अनादि, संसारी मलिन दशा है, मलिनता न हो तो इसे आनन्द का अनुभव चाहिए और आनन्द अन्दर न हो तो आनन्द आयेगा कहाँ से? यदि अन्दर में आनन्द न हो तो आनन्द प्राप्त कहाँ से होगा? और मलिनता ही न हो, तब तो इसे पुरुषार्थ करना,
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy