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________________ वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल २, गाथा ३२ से ३४ सोमवार, दिनाङ्क २०-०६-१९६६ प्रवचन नं. १३ पुण्य-पाप संसार है – ऐसा बतलाते हैं। इसमें पहले ३१ (गाथा में) आया था न? व्यवहारचारित्र निरर्थक है, इतना कहा था। आत्मा के दर्शन-ज्ञान-चारित्र के बिना अकेला यह व्यवहार तप, यह सब अकृतार्थ है; वह कुछ कार्य (काम का) नहीं, निरर्थक है - ऐसा ३१ (गाथा में) कहा था। इसमें आगे है. उसके पहले ३० (गाथा में) भी निश्चय -व्यवहार साथ में कहा था। जहाँ निर्मल आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान और शान्ति हो, वहाँ व्रतादि निमित्तरूप होते हैं, साथ में होते हैं – ऐसा वहाँ ३० में सिद्ध किया है। २९ में ऐसा कहा था कि व्रतादि मोक्षमार्ग नहीं है – ऐसा कहा था। मोक्षमार्ग नहीं है। दया, दान, व्रत, भक्ति, तपादि के परिणाम, वह मोक्षमार्ग नहीं है – ऐसा कहा था। समझ में आया? २८ में क्या कहा था? २८ में त्रिलोक पूज्य जिन आत्मा ही है। यह आत्मा ही तीन लोक में आत्मा को आदरणीय और मोक्ष का कारण है। फिर यह कहा कि इसके अतिरिक्त सब व्रतादि निरर्थक है। निरर्थक अर्थात् मोक्षमार्ग नहीं है – इतना २९ में कहा था।३० में दो साथ में थे - शद्ध चैतन्य की दष्टि, अनभव और व्रतादि के परिणाम साथ में थे। (गाथा) ३१ में कहा कि यह व्यवहारचारित्र अकृतार्थ है। अकृतार्थ अर्थात् अकार्य है, उसमें कुछ कार्य नहीं। इतना कहकर अब यहाँ ३२ में उसका फल बतलाते हैं। पुण्णिं पावइ सग्ग जिउ पावइ णरयणिवासु। बे छंडिवि अप्पा मुणइ तउ लब्भइ सिववासु॥३२॥ यह जीव, पुण्य से तो स्वर्ग पाता है। व्यवहार व्रतादि से स्वर्ग पाता है – ऐसा सिद्ध करते हैं। समझ में आया? दया, दान, व्रतादि के परिणाम, शील, संयम - यह सब भाव, स्वर्ग का कारण है, अर्थात् संसार का कारण है – ऐसा कहा और पावइ णरयणिवासु
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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