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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) २३७ शुभोपयोग भी नहीं कहा जाता । दृष्टि मिथ्यात्व है, वह वास्तव में अशुभ ही परिणाम है ऐसा कहते हैं । आहा... हा... ! समझ में आया ? इक्क परु सुद्धउ है न ? उत्कृष्ट है न ? उत्कृष्ट शुद्ध वीतरागभाव । आत्मा का स्वभाव-आत्मा का अन्तरस्वरूप उत्कृष्ट वीतरागभाव है और उसका अनुभव शुद्ध उपयोग भाव-शुद्ध-उपयोग भाव ( है ) । जब तक ऐसा भाव न करे, तब तक वय व सजमु सीलु व सव्वे इकच्छु यह सब अकृतार्थ है; मोक्ष के लिए अकार्य..... अकार्य.... अकार्य है। यह अकार्य किया परन्तु कार्य कुछ किया नहीं । आहा... हा...! समझ में आया ? - नीचे थोड़ा किया है – बाह्य अवलम्बन या निमित्त को उपादान मानना, वह मिथ्यात्व है । ऐ... ई ... ! यह व्यवहार व्रतादि बाह्य अवलम्बन है । इस अवलम्बन को या निमित्त को उपादान मानना (मिथ्यात्व है) । यह अवलम्बन भी निमित्त है, इसे उपादान मानना, इसे अपना शुद्धस्वरूप मानना, (वह) मिथ्यात्व है। समझ में आया ? कितना ही ठीक लिखा है, फिर निमित्त आवे, तब जरा गड़बड़ करते हैं । कोई करोड़ों जन्मों तक व्यवहार चारित्र पालन करे तो भी वह मोक्ष का मार्ग नहीं है। समझ में आया ? कोई करोड़ों जन्मों तक पालन करे - व्रत, नियम और ऐसी बाह्य तपस्यायें करे परन्तु भगवान आत्मा के अन्तर अनुभव और सम्यग्दर्शन के बिना वह चार गति में भटकने के पंथ में ही वह पड़ा है। समझ में आया ? देखो! यह चारित्र की व्याख्या की है। 'द्रव्यसंग्रह' की गाथा है। यह व्यवहारनय का चारित्र है। निश्चय स्वरूप की दृष्टि और चारित्र होवे तो अशुभ से निवृत्तमान ऐसे शुभभाव को व्यवहारचारित्र कहा जाता है। समझ में आया ? शुभाशुभपरिणाम से निवृत्ति और भगवान आत्मा की दृष्टिसहित के शुद्धोपयोग की रमणता करे, उसका नाम वास्तविक चारित्र है और उसके साथ अशुभ से निवृत्तकर शुभभाव होवे, उसे व्यवहारचारित्र (कहते हैं) । व्यवहारचारित्र, बन्ध का कारण है; निश्चयचारित्र, संवर - निर्जरा का कारण है। समझ में आया ? मुमुक्षु - क्रिया करने से अमुक भव में तो लाभ होता होगा न ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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