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________________ वीर संवत २४९२ ज्येष्ठ कृष्ण ४, गाथा ४ से ६ मंगलवार, दिनाङ्क ०७-०६-१९६६ प्रवचन नं. २ यह योगसार चलता है। योगीन्द्रदेव एक आचार्य दिगम्बर मुनि हुए हैं। उन्होंने इस ‘योगसार' (अर्थात्) आत्मा के स्वभाव का व्यापार कैसे करना ? और यह कैसे भूला है ? - इसमें अधिकार (कहते हैं) । भूला है - यह भी खोटा भाव है न ? यह योगसार है । स्वरूप में कैसे रमना ? परन्तु यह किसके लिए कहते हैं? एक तो चार गति के भव के भय से दुःखी हुआ हो। चार गति के दुःख से डर लगा हो और जिसे मोक्ष की लालसा, अभिलाषा हो, उसके लिए यह योगसार है । यह इसकी पहली शर्त है। मुमुक्षु - देवगति में तो लाभ है न ? उत्तर - देवगति में धूल में भी लाभ नहीं है। देवगति में क्या लाभ है ? है ? देवगति में लाभ है ? दुःख है, दुःख । वहाँ चार गति का दुःख कहा है। श्वेताम्बर में एक ऐसा दृष्टान्त आता है कि ‘लावो देवमयीभवी' - उत्तराध्ययन में (आता है) । देवगति का मनुष्यपना प्राप्त किया था, उसमें से मनुष्यपना प्राप्त करे तो मूल से पूँजी रही । मनुष्यपने में नारकी में जाए तो पूँजी खोई। देव होवे तो लाभ हुआ । सुना है ? आता है। यह धूल में भी लाभ नहीं है । 1 यहाँ तो पहले से चार गति में परिभ्रमण करना जो दुःख है और जिसे चार गति के दुःख का भय लगा है; स्वर्ग में उत्पन्न होना भी भय है, दुःख है, आकुलता है; वहाँ कहीं शान्ति नहीं है। समझ में आया ? इससे कहते हैं । वह उत्तराध्ययन में आता है, भाई ! व्यापारी का दृष्टान्त दिया है। दस हजार की पूँजी हो और दस हजार को संभाले तो मूल से पूँजी रही; खोवे तो गई; बढ़ावे तो पूँजी बढ़ाई। इस प्रकार मनुष्यपना प्राप्त करके मनुश्रूपना होवे तो पूँजी बराबर रखी; मनुष्यपना (पाये पीछे) नरक में जाए तो पूँजी खोई
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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