SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २१९ आहा...हा...! क्या है यह? लोग उसमें महिमा मान लेते हैं। समझ में आया? और करनेवाले को महिमा आ जाती है कि आहा...हा...! हमने भी कुछ प्रभावना की। छगनभाई! सब उड़ा दिया है। एक व्यक्ति कहता था – टोडरमलजी ने तो उस्तरा लेकर सबका मुण्डन कर दिया। एक बात आयी थी। सजायो समझते हो उस्तरा, उस्तरा होता है न? टोडरमलजी ने उस्तरा लेकर सबका मुण्डन कर दिया। ऐसा यहाँ निश्चय पूज्य में तो सबका मुण्डन कर दिया। तीन लोक का नाथ पूज्य? तो कहते हैं व्यवहार से। आहा...हा...! समवसरण में ऐसे इन्द्र भी पूजते हैं। प्रभु! आहा...हा...! व्यवहार के कथन ही ऐसे हैं । व्यवहार का ज्ञान, व्यवहार का विकल्प, परपदार्थ का लक्ष्य हो, होवे परन्तु वह कहीं वास्तविक आत्मा नहीं है और वह वास्तव में पूज्य नहीं है। ए...ई... ! अब तो मन्दिर-बन्दिर हो गया है। एक का बाकी रहा है न? मुमुक्षु – मलूकचन्दभाई करे उस दिन होगा? उत्तर – लो, यह तुम्हारे मामा करे न? बाकी रहा है, वह करे तो हो – ऐसा है। पैसे इनके लड़के के पास पड़े हैं न? आहा...हा..! कठिन बात, भाई! कहना कुछ मानना कुछ, फिर (ऐसा) कहते हैं। भाई ! ऐसे विकल्प होते हैं । वह बन्ध का कारण है, आये बिना नहीं रहते। क्यों? अबन्धस्वभावी आत्मा पूर्ण अबन्ध परिणाम को प्राप्त न करे, तब तक ऐसे भाव होते हैं, इसलिए व्यवहार है अवश्य; न माने तो मिथ्यादृष्टि हो जाता है और व्यवहार से पूज्य कहा उसे परमार्थ से पूज्य माने तो भी मिथ्यादृष्टि है। आहा...हा...! समझ में आया? त्रिलोक पूज्य परमात्मा जिनेन्द्र हूँ, लो! तीन लोक के प्राणी जिसे ध्याते हैं, पूजते हैं, वन्दन करते हैं, वही परमात्मा यह आत्मा है। मैं ही हूँ। मैं त्रिलोक पूज्य परमात्मा जिनेन्द्र हूँ। ओ...हो...! ऐसा भ्रान्तिरहित निश्चय से जानना चाहिए। अरे...! परन्तु मैं भगवान? मैं भगवान? आहा...हा... ! मैं भगवान... भाईसाहब! ऐसा वस्तुस्वरूप है, कहते हैं। समझ में आया? आहा...हा...! ऐसे स्वरूप का शुद्ध भगवान आत्मा तीन लोक में पूज्य पुरुषों को भी पूज्य है। समझ में आया? गणधर आदि सन्त जो पूज्य हैं, उन्हें भी पूज्य आत्मा है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy