SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० गाथा-२६ करने की तो कहाँ बात रही? पर का कौन करे? ए... निहालभाई! यह कोई बात ! दूसरे का करना, वह 'सतरगच्छ' में है, नहीं? बहुत करके उसमें है । हैं ? वह उस दिन तो ऐसा बोला था। मैंने कहा यह क्या कहता है यह? यहाँ तो कहते हैं भाई! यह तो जिनस्वरूप भगवान आत्मा है । वह आत्मा, उसका लक्ष्य करके जिनस्वरूप में स्थिर होना, वीतरागी पर्याय से स्थिर हो, वह जैन, वह जिन के स्वरूप का आराधक है, और वह शिवलाभ का हेतु करनेवाला है। आहा...हा...! समझ में आया? वह केवलणाण सहाउ वह तो सम्पूर्ण ज्ञान का धनी है। आहा...हा...! पूर्ण निरावरण ज्ञान का पिण्ड है, स्वतः ज्ञान का पिण्ड है, जो ज्ञान पर से नहीं आता... पर को देता नहीं, पर से आता नहीं। समझ में आया? ऐसा अकेला चैतन्य का पुञ्ज भगवान है। ज्ञान – निरावरण केवलज्ञान का स्वभाव ही उसका वह है। अकेला पूर्ण, अकेला पूर्ण, ज्ञान स्वभाव, वह भगवान है। देखो! राग तो नहीं, शरीर तो नहीं, अपूर्ण तो नहीं... समझ में आया? यह तो पूर्ण आत्मा.... आत्मा ही उसे कहते हैं। चार ज्ञान का विकास, वह वास्तव में आत्मा नहीं है। कहो, आहा...हा...! समझ में आया? गणधर की पदवी, चौदह पूर्व रचे, बारह अंग की रचना की, कितनी अधिकता ! (तो कहते हैं) नहीं; तुझसे किसने कहा? अकेला ज्ञान स्वभाव है, उसमें फिर यह रचना और यह विकल्प वस्तु में है कहाँ? यहाँ तो प्रगट चार ज्ञान की पर्याय है, वह वास्तविक आत्मा नहीं है, वह वास्तविक नहीं है; व्यवहार आत्मा है। समझ में आया? ऐसा केवलणाण सहाउ सो अप्पा।लो, वह आत्मा... उसे आत्मा कहते हैं। इसके अतिरिक्त कम-ज्यादा, विपरीत अन्दर में रखेगा, वह आत्मा को नहीं जानता है। समझ में आया? आहा...हा...! सो अप्पा अणुदिणु'अणुदिणु' अर्थात् हमेशा... हमेशा, ऐसा। रात और दिन अर्थात् हमेशा, ऐसे आत्मा को (ध्या)। हमेशा क्यों? किन्तु चौबीस घण्टे में किसी दिन कुछ तो किसी का करना.... किसी का करने के लिए.... बापू! एक व्यक्ति कहता था, दो-तीन भव हमारे होवे तो दिक्कत नहीं है। (हमने) कहा दो-तीन नहीं एकदम
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy