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________________ १९८ गाथा - २५ महिमा नहीं आयी । स्वयं अनुभव होने योग्य स्वयं से है, पर के अवलम्बन से नहीं । राग और व्यवहार के अवलम्बन से अनुभव होने योग्य यह चीज - आत्मा नहीं है। ऐसी आत्मा की महिमा किये बिना, अनन्त बार भटककर मरा । अहिंसा पालन की और दया पालन की, व्रत पालन किये, भक्ति की, तपस्या (की), बारह - बारह महीने के अपवास, बारह-बारह महीने के अपवास..... भिक्षा के लिये जाये तो अकेले मुरमुरे (और) पानी जल (मिले)। क्या हुआ ? भगवान आत्मा एक स्वरूप सीधा अनुभव होने योग्य है, उसकी इसने महिमा नहीं की। समझ में आया? कहो, हरिभाई ! इस पैसे की महिमा और इस धूल की महिमा । आहा .... हा...! देखो न ! कैसा अलग प्रकार का आया है या नहीं ? सीधा हाथ में रखे ऐसा है ? यह नया आया है। नये प्रकार का आवे तो नये प्रकार का उसको पकड़ना है न ? ऐसे जगत के मोह हैं। नयी फैशन हो, तब लोगों को महिमा लगती है, उसमें से समझे तब तो धर्मी के पास सुनने ही नहीं जाये, उससे यदि प्राप्त हो जाये तो । समझ में आया ? आहा...हा... ! परन्तु सम्यक्त्व के बिना चौरासी में भटक सकता है । परन्तु आज तक इसने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया, हे जीव ! निःसन्देहपने यह बात जान । और भविष्य का लेना हो तो जहाँ तक आत्मा का भगवान आत्मा का सीधा अनुभव होने योग्य स्वानुभूत्या चकासते – वीतरागी पर्याय से अनुभव हो सके - ऐसा आत्मा है, उसे प्राप्त किये बिना अनन्त काल भविष्य में भी भटकेगा। समझ में आया? यह जान णिभंतु देखो ! स्वयं कहते हैं, हाँ! एक सम्यक्त्व नहीं पाया । चारित्र नहीं पाया - ऐसा कहा है ? सम्यक्त्व हो, तब चारित्र होता है, उसके बिना चारित्र नहीं होता । यह सब क्रियाकाण्ड, यह चारित्र है ? यह तो इसने अनन्त बार किया है। मुमुक्षु - यह तो अचारित्र है। उत्तर अचारित्र तो अनन्त बार किया है। देखो, रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस श्लोक की थोड़ी टीका की है। देखो ! न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ ३४॥ -
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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