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________________ १७६ गाथा - २२ भाई ! छोड़ । आहा....हा... ! वह कहे, नहीं । अभी शुभ विकल्प करोगे तो क्षायिक समकित होगा। अरे... कुकर्म कर डाला तूने । तूने परमात्मा को लुटा डाला... समझ में आया ? बापू! यह निगोद का फल तुझे कठोर पड़ेगा भाई ! यह दुनिया तो बेचारी अभी पकड़ेगी कि हाँ ! अपने को तो कितना (मिलता है) ! कैसा मार्ग कहता है ? आहा... हा... ! शुभ में तो धर्म होता है। धूल में भी थोड़ा ( नहीं होता) । शुभ में भगवान पड़ा है ? आत्मा शुभ से पार है, ऐसे आत्मा का अन्दर श्रद्धा - ज्ञान किये बिना, इसके द्वारा मुझे मिलेगा, मूढ़ पामर हो जायेगा, निगोद में जायेगा, हीन होते... होते... होते... मैं आत्मा हूँ या नहीं ? यह श्रद्धा उड़ जायेगी। आत्मा हूँ - ऐसा व्यवहार, अन्दर अंश में श्रद्धा है, वह उड़ जायेगी। आहा... हा...! - आड़ न दे, आड़ न दे, भगवान आत्मा को आड़ न दे । आड़ दिया तो तेरे ऊपर आड़ चढ़ जायेगी । आहा...हा... ! यह एक शब्द आता था, नहीं ? जो दूसरे को आड़ देता है, वह स्वयं को आड़ देता है – ऐसा शब्द है । उस दिन व्याख्या करते यह सब कथन तुम्हारी वीरवाणी में आये हैं, भाई! साथ थे ? ऐसा । वहाँ थे तो सही परन्तु उस लिखने में साथ थे ? किसी समय । जो कोई अपनी आत्मसत्ता • ऐसी परमात्म सत्ता को आड़ देता है कि मैं इतना नहीं, मैं रागवाला और अल्पज्ञ और नीचवाला... वे आड़ देनेवाले, आत्मा में मैं नहीं ऐसा उसे एक बार आड़ देगा... जगत में मैं आत्मा ही नहीं... मैं नहीं, मैं नहीं... कहाँ हूँ ? कहाँ हूँ? समझ में आया ? अन्धा हो जायेगा, मैं आत्मा ही, परमात्मा ही हूँ, अल्पज्ञ और राग नहीं, मैं परमात्मा ही हूँ; इसके अतिरिक्त विकल्प को छोड़ दे। इन सब विकल्पों से कुछ लाभ होगा, किंचित् लाभ होगा ( - यह छोड़ दे ) । हैं? तीर्थंकर कर्म बाँधे और तीर्थंकर कर्म बाँधे उसे अल्प काल में मुक्ति होती है, लो ! श्रीमद् कहते हैं, एक जीव को भी यदि ठीक से समझावे तो तीर्थंकर कर्म बाँधता है... परन्तु बाँधता है न ? ऐसा कहते हैं । छूटा कहाँ इसमें ? अन्य विकल्प मत कर ! यहाँ तो तीर्थंकर कर्म बाँधने का विकल्प भी छोड़ दे ६। समझ में आया ? भगवान आत्मा परमात्मस्वरूप है न, प्रभु ! अरे... ! तेरे खजाने में कमी कहाँ है कि तुझे दूसरे की शरण लेना पड़े। आहा... हा...!
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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