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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) १७३ कहते हैं कि अण्णु म करहु वियप्पु दूसरे जितने विकल्प करें दूसरे को समझाने के, यह शास्त्र रचने के – इनसे तू बड़प्पन मानेगा तो यह वस्तु में नहीं है। समझ में आया ? अब सब शास्त्र-वास्त्र चर्चा छोड़कर यह कर - ऐसा कहते हैं। कब तक तुझे शास्त्र की चर्चाएँ मथना है ? इस शास्त्र में ऐसा कहा है और उस शास्त्र में यह कहा है और इस शास्त्र में यह कहा है, यह तो सब विकल्प की जाल है । आहा... हा...! — जो परमप्पा सो जि हउं मैं हूँ ऐसा । सो जि हउं यह परमात्मा, वही मैं हूँ । फिर उस परमात्मा जैसा जान – ऐसा नहीं । यहाँ तो कहते हैं परमात्मा ही मैं हूँ। पहले उनके साथ मिलान किया था। यहाँ तो परमात्मा पूर्णानन्दस्वरूप एक सेकेण्ड के असंख्य भाग अनन्त गुणका पिण्ड प्रभु, पिण्ड भगवान, वही मैं हूँ - ऐसा अन्तर में निश्चय में अनुभव में ला और उसका अनुभव करना, वह तेरे लाभ में जाता है। बाकी जितने विकल्प करना और वाणी - फाणी यह सब, शास्त्र की चर्चाएँ और वाद-विवाद व शास्त्र चर्चा करना, यह सब लाभ में नहीं है - यहाँ तो ऐसा कहते हैं । हैं? समझ में आया ? उन्होंने कहा है – व्यवहार की कल्पनाएँ छोड़कर केवल एक शुद्ध निश्चयनय से अपने आत्मा को पहचान.... शास्त्रों का ज्ञान संकेतमात्र है । शास्त्र के ज्ञान में ही जो अटका करेगा, उसे अपनी आत्मा का दर्शन नहीं होगा। आहा... हा...! • कल्पनाएँ कीं सब व्यवहार की । कल्पना ही है न परन्तु व्यवहार की ( तो कहे), नहीं, कल्पना नहीं। मुमुक्षु उत्तर अब सुन न ! मुमुक्षु उत्तर - धूल होती है। भगवान चिदानन्द विराजता है और तू व्यवहार रंक से (लाभ मानता है) । परमेश्वर हुआ रंक, भिखारी परमेश्वर हुआ.... ए... परमेश्वर होता है या भिखारी परमेश्वर होता होगा ? व्यवहार का राग भिखारी है, रंक है, नाश होने योग्य है, वह परमेश्वर पद को प्राप्त करावे ? समझ में आया ? शास्त्र की चर्चाएँ और कल्पनाएँ, यह कल्पना परमेश्वर पद को प्राप्त करावे ? तैंतीस - तैंतीस सागर तक सर्वार्थसिद्धि के देव • उससे तो संवर-निर्जरा होती है साहब । -
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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