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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) १७१ से आया है। पहली लाइन है, भाई ! उस जिनवाणी को गणधर आदि मुनि धारणा में लेकर बारह अंग की रचना करते हैं.... और बारह अंग का सार इसमें बताया है । दिव्यध्वनि में ही कहा है । आहा...हा... ! वीतराग हुए, सर्वज्ञ हुए, (वे) अल्पज्ञता में रखने के लिये बात करते होंगे ? राग के कर्तृत्व में रखने के लिये बात करते होंगे ? निमित्त का लक्ष्य रखना और मोक्ष लेना इसके लिये भगवान की वाणी है ? आहा... हा... ! निमित्त का लक्ष्य रखना ? निमित्त आवे तो काम होता है ? यहाँ त्रिकाल पड़ा है, वहाँ एकाग्र हो तो काम होता है - ऐसे वहाँ जा ! वीतराग की वाणी में यह आया है । कठिन परन्तु... पामरता को ऐसी पीस डाली है, पामरता को पीस डाला है। प्रभुता तो एक ओर पड़ी रही । उलझ गया । कहते हैं आहा...हा... ! इउ जाणेविण जोयइहु छंडहु मायाचारु। इस राग द्वारा, विकल्प द्वारा माहात्म्य मानना छोड़ दे। समझ में आया ? इस वाणी के उपदेश द्वारा या बहुत वाणी मिली और समझाने का राग (आया), इसलिए उस वाणी द्वारा मेरी महिमा है (-यह बात ) छोड़ दे । आहा... हा...! यह तो मायाचार है। एक ओर छोड़ न ! महिमा तो यहाँ अन्दर प्रभुता विराजमान है, उसके शरण में जाने से तेरी शान्ति और वीतरागता प्रगट होगी। हमें बहुत आता है, हजारों लोग हमने ऐसे किये, हमने लाखों पुस्तकें बनायी कोई तेरे आचरण हैं ? यह तेरे आचरण हैं? तूने इससे शोभा, महिमा मनवाता है ? क्या कहते हैं ? मैंने बहुत शिष्य बनाये .... बनाये धूल में... कौन बनावे, कौन बनावे ? और किसके बनाने से कौन बनता है? भगवान स्वयं परमात्मा समान है - ऐसा अन्तर जानकर स्थिर हो, (उसे) स्वयं को महिमा और लाभ मिलता है, बाकी धूल-धाणी है। समझ में आया ? - यह छंडहु मायाचारु मुनि को मायाचार छोड़ने की जरूरत पड़ी? हाँ, इसका अर्थ यह । विकल्प के जाल द्वारा और शरीर की स्थिति द्वारा माहात्म्य मत मान, इससे महत्ता मत कर, यह मुझे बहुत कहना आता है, समझाना आता है, बड़ा आचार्य हुआ हूँ... समझ में आया ? हमें पदवी मिली है। देखो! हमारे नीचे पाँच-पाँच सौ साधु बड़े करके बैठाये हैं, इनसे बड़प्पन मत मान, रहने दे । ए ... हरिभाई ! आहा... हा... ! कठिन बात, भाई ! कहो यह २१ गाथा (पूरी) हुई।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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