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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) १४९ यहाँ 'योगसार' हैं। भगवान आत्मा परमानन्द की मूर्ति प्रभु, अकेली ज्ञान की कतली- ज्ञान की मूर्ति ज्ञानसूर्य, यह वीतरागस्वरूप ही आत्मा है। उसका ध्यान करने से, उसे ध्येय बनाकर लीन होने से क्षण में, क्षण में, क्षण में केवलज्ञान पाता है । जो सादि - अनन्त काल रहे, वैसी दशा क्षण में प्राप्त करता है - ऐसा साधन आत्मा में है । समझ में आया ? आहा... हा... ! आत्मा कितना और कैसा है - यह बात इसे जमती नहीं, जमती नहीं । हैं ? किया नहीं, सन्मुख देखा नहीं। ऐसे के ऐसे अवतार सब इसने व्यतीत किये। शान्तिभाई ! आहा...हा... ! धूल की और यह किया। अधिक तो फुरसत होवे तो थोड़ा सा लाओ पूजा करें, एक-दो घड़ी सामायिक करेंगे..... परन्तु सामायिक किसकी ? अभी वस्तु कौन है ? कहाँ है ? किसमें लीनता करनी है ? - यह तो पता ही नहीं होता ! तू सामायिक कहाँ से लाया ? सामायिक अर्थात् समता.... तो समता का पिण्ड परमात्मा स्वयं वीतरागी मूर्ति ( है ) – ऐसी दृष्टि हुए बिना, उसमें स्थिरता की क्रिया किस प्रकार होगी ? समझ में आया ? अनादि से राग, पुण्य और विकल्प को देखा है, देखा है, जाना है और यह बाहर की क्रिया होती है, वह देखा है । वहाँ स्थिर होगा, वह तो राग में स्थिर हुआ। वहाँ कहाँ सामायिक थी ? समझ में आया ? भगवान की पूजा की, परन्तु कौन सा भगवान ? उन भगवान की पूजा की, वह तो शुभभाव, राग है। यह भगवान वीतराग है और वे भी वीतराग परमात्मा हैं, तो वीतरागता की पूजा वीतरागभाव से हो सकती है। समझ में आया ? उनके जाति के भात से उनकी पूजा होती है। भगवान आत्मा.... तीन शब्द में आचार्य ने समाहित कर दिया है, लो! सो झाहंतह ऐसा जो ध्यान करे। भगवान आत्मा को रुचि में लेकर, ज्ञान में उसे ज्ञेय बनाकर; दूसरे सब ज्ञान में ज्ञेय बनाता है, उन्हें छोड़ दे। दूसरे का, राग का निमित्त का विश्वास छोड़ दे। भगवान आत्मा वीतराग हूँ - ऐसा विश्वास (लावे) और उसे ज्ञेय बनाकर ज्ञान (करे) - यह उसका स्मरण और चिन्तवन (करके) उसमें स्थिर हो तो क्षण में केवल (ज्ञान) - प्राप्त करे। आहा... हा.... ! समझ में आया ? तो फिर सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र के अंश में भी स्वरूप में स्थिर हो, उतना उसे अमृत का आनन्द आता है। वह आनन्द उसे पूरे जगत का
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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