SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १४१ में आया? दूसरा जिनेन्द्र भगवान दे नहीं देते, हाँ! कोई कर्ता नहीं (कि) वे दे दे। आहा...हा...! उस पर ईश्वर के पास तेरा ईश्वरपना नहीं पड़ा है; तेरा ईश्वरपना तुझमें पड़ा है। अन्दर ज्ञान ईश्वर, दर्शन ईश्वर, आनन्द ईश्वर, स्वच्छता ईश्वर, प्रभुता ईश्वर, अस्तित्व ईश्वर वस्तत्व ईश्वर - ऐसे अनन्त ईश्वरता का स्वामी आत्मा है। इसे किस प्रकार (अँचे)? कभी आत्मा क्या है? – उसका पता नहीं होता और यह करो, यह करो, यह करो, यह करो, पूजा करो, भक्ति करो, दया करो, दान करो, हो जायेगा धर्म.... धूल में भी धर्म नहीं है। अब सुन न ! यह तो राग की मन्दता होवे तो कुछ पुण्य बाँधे और चार गति में चौरासी के धक्के खायेगा। शान्तिभाई! आहा...हा...! परमेश्वर घर में विराजे और उसका आदर न करे और एक नीच जाति की स्त्री ऐसे सड़े हुए रोगवाली हो, उसका आदर करे, आओ... आओ... भगवान विराजे, ऐसे दो चीज सामने है – एक परमात्मा विराजते हैं आहा...हा...! ऋषभदेव लो न, छह महीने और बारह महीने आहार लेने आये न? श्रेयांसकुमार के घर आहा...हा...! प्रभु! पधारो... पधारो... पधारो... हमारा आँगन उज्ज्वल है। उस समय कोई नीच कुलीन स्त्री निकले, क्षय रोगवाली और सोलह रोगवाली बाई आयी हो, उसका आदर करे... इसी प्रकार भगवान तीन लोक का नाथ परमात्मा स्वयं समीप में स्वयं विराजमान है, उसका आदर न करके पुण्य और पाप, भिखारी जैसे मैल विकार और धूल इस शरीरादिक का सत्कार करे तो वह कहीं विवेकी नहीं कहा जाता है। समझ में आया? जिनसमरो.... स्मरण करो अर्थात् उसे बारम्बार याद करो। आहा...हा...! यह तो पहले देखा है न? देखे बिना क्या (याद करे)? भगवान शुद्ध चैतन्य है, पुण्य-पाप का राग, वह मैल है, शरीरादि क्रियाएँ इस जड़ की मिट्टी, धूल की हैं - ऐसा जिसे पहले सम्यग्ज्ञान में विवेक प्रगट हुआ है, दर्शन किया है, धारणा हुई है, उसमें से स्मरण करता है, उसमें से याद करता है। इसमें क्या समझे? यह स्मरण अर्थात् क्या? यह जातिस्मरण, इसका अर्थ क्या है ? इससे पूर्व धारा था, उसमें से याद आना, इसी प्रकार इस आत्मा को पहले धारा था कि यह पवित्र और शुद्ध है, विकार रहित है – ऐसा श्रद्धा और ज्ञान में धारा था। उसे बारम्बार याद करना, उसे आत्मा का स्मरण कहा जाता है। आहा...हा... ! समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy