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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १३९ तप और दान.... तो कहते हैं कि तप करे अर्थात् क्या? कि हमेशा जरा ध्यान का प्रयोग करे। विकल्प से पहले विचार करे – यह व्यवहार षट्कर्म हुआ और अन्दर में एकाग्र होवे। अन्दर ध्यान का प्रयोग करे, गृहस्थाश्रम में रहनेवाला समकिती अन्तर आनन्द के ध्यान का प्रयोग करके और अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन करे, वह निश्चय आवश्यक कर्म हुआ और मैं ध्यान करता हूँ – ऐसा विकल्प उत्पन्न हुआ, वह तो व्यवहार षट्कर्म में गया। समझ में आया? आहा...हा...! लो, यह बात हुई। फिर तो बहुत लम्बा किया है, हाँ! अब १९ गाथा। जिनेन्द्र का स्मरण परम पद का कारण है जिण सुमिरहु जिण चिंतबहु जिण झायहु सुमणेण। सो झाहंतह परमपउ लब्भइ एक्कखणेण॥१९॥ जिन सुमरो निज चिन्तवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध। जो ध्यावत क्षण एक में, लहत परम पद शुद्ध॥ अन्वयार्थ - (सुमणेण ) शुद्धभाव से (जिणु सुमिरहु) जिनेन्द्र का स्मरण करो (जिण चिंतवह) जिनेन्द्र का चिन्तवन करो (जिण झायह) जिनेन्द्र का ध्यान करो। (सो झाहंतह) ऐसा ध्यान करने से (एक्कखणेण) एक क्षण में (परमपउ लब्भइ) परमपद प्राप्त हो जाता है। जिनेन्द्र का स्मरण परम पद का कारण है। १९, १९ । जिण सुमिरहु जिण चिंतबहु जिण झायहु सुमणेण। सो झाहंतह परमपउ लब्भइ एक्कखणेण॥१९॥ हे आत्मा! वीतराग परमेश्वर और तेरा आत्मा, दोनों के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं है। पर्याय – अवस्था में, हालत में, दशा में (अन्तर है)। भगवान की दशा पूर्ण निर्मल हो
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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