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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १३५ उसने आत्मा का त्याग किया है। मोहनभाई! यह त्याग किया है, उसने भगवान आत्मा का और ज्ञानी ने त्याग किया है सम्पूर्ण रागादि विकल्पों का। जिस भाव से तीर्थंकर कर्म बँधता है, उस भाव का भी दृष्टि में त्याग है – ऐसी त्याग और ग्रहण की दृष्टि (का पता नहीं चलता)। यहाँ त्याग-ग्रहण कहा न? हेय-उपादेय कहा था न? हेय-उपादेय शब्द में अन्तर में आत्मा पड़ा है, हाँ! समझ में आया? ___ अन्तर में... प्रभु अन्तर में विराजता है और उसका साधर्मी राग से दूर (ऐसा) अन्दर साधन समीप है। अन्तर में एकाग्र होना, वह उसका साधन है। अब ऐसे साधन को और ऐसे साधन के ध्येय को न जाने, उसे यह हेय या उपादेय तो ज्ञान में वर्तता नहीं, इसलिए उसे आत्मा का त्याग वर्तता है परन्तु राग का त्याग दृष्टि में नहीं है। धर्मी जीव गृहस्थाश्रम में पड़ा है। छियानवें हजार स्त्रियों के वृन्द में (होवे)... समझ में आया? छियानवें हजार स्त्रियों के भोग में पडा हो, समकिती छियानवें हजार पद्मिनी जैसी स्त्रियों के भोग में (होवे), उस भाग के काल में भी अन्दर दृष्टि में (उसका) त्याग वर्तता है। मेरा आनन्द प्रभु मेरे पास है। अरे...रे... ! यह समाधान नहीं होता, इसलिए राग आता है। उस अस्थिरता को हेयरूप जानता है और पूरा भगवान आनन्दमूर्ति को उपादेयरूप से जानता है और दूसरे ही क्षण ध्यान में आ जावे तो अतीन्द्रिय आनन्द का ध्यान भी कर लेता है। आहा...हा... ! समझ में आया? एक ओर ऐसे भोग की वासना की विकल्प में दौड़ गया था, तथापि अन्दर दौड़ तो पड़ा है। अन्दर दौड़ पड़ा है आत्मा पर... यह भगवान आत्मा मेरा सच्चिदानन्द प्रभु ही मुझे आदरणीय है। समझ में आया? ऐसे स्वरूप में गृहस्थाश्रम में भी स्व-स्वरूप पूरा है, उसे कोई क्यों आदरणीय नहीं कर सकता? ऐसा कहते हैं। वह तो अपने स्वरूप का माहात्म्य नहीं है; इसलिए विकार और पर के माहात्म्य में इसकी नजरें गयी हैं। इस कारण मिथ्यात्व में पड़ा हुआ अनादि से पर का माहात्म्य करता है परन्तु जहाँ स्व का माहात्म्य गृहस्थाश्रम में रहने पर भी आया, यह भगवान एक ही मेरा अखण्डानन्द प्रभु, यह मुझे स्थिरता का स्थान, विश्राम का धाम, यह लीनता का स्थान, विश्राम का स्थान होवे तो आत्मा है। ऐसी जिसने अन्तर्दृष्टि और ज्ञान में निर्णय किया हो, उसे पूरा रागादि (भाव),
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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