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________________ १२२ गाथा - १७ उत्तर यह ऐसा कहते हैं। व्यवहार पराश्रित है। दूसरे द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा को कुछ का कुछ कहता है । ऐसा इन्होंने थोड़ा लिखा है । निश्चयनय स्वाश्रित है, आत्मा को यथार्थ जैसा का तैसा कहता है। निश्चयनय से आत्मा स्वयं अरहन्त अथवा सिद्ध परमात्मा है । स्वयं अरहन्त और परमात्मा वस्तु वर्तमान... वर्तमान... वर्तमान...। मैं सिद्ध परमात्मा, मैं सदा सिद्ध परमात्मा, वस्तु से हूँ. ऐसी अन्तर की दृष्टि, उसका ज्ञान, वह पर्याय में सिद्ध पद को पाने का कारण है; दूसरा कोई ज्ञान, दूसरी कोई श्रद्धा, दूसरे कोई आचरण आत्मा को मुक्ति प्राप्त करने का कारण नहीं है । कहो, समझ में आया ? — जिय पावहु परमेट्ठि देखो ! वह परमेष्ठी होता है। जो परमेष्ठी का पद व्यवहारनय से पहले जाननेयोग्य कहा था, उसके आश्रय से परमेष्ठी नहीं हुआ जाता। एक भगवान आत्मा एक समय में परिपूर्ण प्रभु, अभेद चीज की दृष्टि होने पर, उसका ज्ञान होने पर वह ज्ञान और दृष्टि स्वभाव के साथ अभेद हुई, वह अभेदपना सिद्धपद की प्राप्ति में कारण है; दूसरा कोई कारण नहीं है । व्यवहाररत्नत्रय आदि मुक्ति का कारण नहीं है - ऐसा कहते हैं । यह व्यवहार का ज्ञान मुक्ति का कारण नहीं है ऐसा कहते हैं । मार्गणा और गुणस्थान का ज्ञान भी मुक्ति का कारण नहीं है । आहा... हा...! समझ में आया ? सुद्धं तु वियाणंतो फिर यह सब बात ली है । गति और इन्द्रियाँ और है न ? मार्गणा, काय, योग, वेद... किस वेद में जीव है, किस कषाय में है, किस योग में है, मन -वचन-काया..... किस ज्ञान में, संयम में कौन सा संयम वर्तता है, क्या दर्शन ? कौन सी लेश्या ? समकित, संज्ञी ये सब भले जानने योग्य है। वीतरागमार्ग में यह व्यवहार है, वह जानने योग्य है और गुणस्थान के चौदह भेद लिये उन चौदह की प्रत्येक की व्याख्या की। यह सत्रह (गाथा की) व्याख्या हुई । अब कोई ऐसा कि गृहस्थ में ऐसा मार्ग होता है या नहीं ? कोई कहे, परन्तु यह मार्ग तो कोई महात्यागी मुनि, जंगल में जाये उनके लिये होता है। तो स्पष्टीकरण करते
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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