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________________ ११८ गाथा-१७ नहीं। मुझे लाभदायक अभेद है, इसलिए वह है। समझ में आया? इसमें समझ में आता है या नहीं? धीरे-धीरे (अर्थ) होता है, भाई! __ ववहारेण वि दिट्ठी – है न परन्तु.... यह शब्द पड़े हैं या नहीं, उस पुस्तक में? पुस्तक बड़ी नहीं परन्तु अर्थ कैसा! केवल व्यवहारनय । ववहारेण ऐसा शब्द है। उसका अर्थ किया, व्यवहारनय.... व्यवहार कहो या व्यवहारनय कहो। उसकी दृष्टि से ही जीव को मार्गणा और गुणस्थानरूप कहा गया है। मार्गणा अर्थात् यह जीव यहाँ है, यह जीव यहाँ है, पर्याय में यह है – ऐसा कहा (जाता है) और इस गुणस्थान में जीव है, इस गुणस्थान में जीव है - ऐसा कहा गया है। निश्चयनय से.... अभेदस्वभाव की दृष्टि से कहा जाये तो अप्पा मुणहु... अपने आत्मा को आत्मारूप ही समझ.... भेद-बेद नहीं । यह समकित पर्याय है और यह ज्ञान उपयोग है और यह भव्य है, यह नहीं । आहा...हा...! समझ में आया? यह राग अभी एक -दो भव करेगा – यह ज्ञान जानने योग्य है, आदरणेय योग्य नहीं। समझ में आया? यह तो मार्गणा की दृष्टि से व्यवहार आया कि राग है। समझ में आया? असेस कर्म का भोग है' श्रीमद् कहते हैं न? 'भोगनां अवशेष रे.... इससे देह एक धारकर जाऊँगा, स्वरूप स्वदेश रे....' हमें अभी हमें थोड़ा राग वर्तता है, इसलिए ऐसा ज्ञात होता है कि थोड़े काल अभी राग का वेदन रहेगा, उससे ऐसा ज्ञात होता है कि एक-दो भव करने पड़ेगे। श्रीमद् राजचन्द्र । समझ में आया? असेस कर्म का भोग है' अनुभवपूर्ण उग्रता का है नहीं और उग्रता अल्प काल में होवे – ऐसा अभी भासित नहीं होता। आहा...हा...! 'असेस कर्म का भोग...' कर्म अर्थात् राग। अभी अल्प राग की वेदन दशा मानो लम्बाती है - ऐसा लगता है। यह व्यवहारनय का विषय है। मोक्ष भी है न! जाये कहाँ ? भगवान आत्मा मोक्षस्वरूप है। चैतन्य महासत्ता आनन्द का कन्द, वह मुक्तस्वरूप ही है। जाये कहाँ और आये कहाँ ? आहा...हा...! समझ में आया? कहते हैं, ऐसा जो ज्ञान.... एक देह धारना है, अभी एकाध देह मनुष्य की होगी, यह सब पर्याय का - व्यवहार का ज्ञान हो, आदरणीय नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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