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________________ ११० गाथा-१६ सकता, किसी चीज में नहीं हो सकता। आहा...हा...! गुणी भगवान और गुण के भेद द्वारा भी सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता। समझ में आया? तो फिर राग और दया, दान के विकल्पों से – पहले यह पालन करो – फिर सम्यग्दर्शन होगा – धूल में भी नहीं। सुन न ! मर जाएगा हैरान होकर, अनन्त काल से। कहो. समझ में आया? अण्णुण किं पि वियाणि गाथा भी बहुत सरस आयी, सोलहवीं है, देखो! ऐ... मनुसखभाई ! मोक्खह कारण जोईया योगी अर्थात् हे धर्मी ! सम्यग्दृष्टि को धर्मी ही कहा है, योगी कहा है। सम्यग्दर्शन – आत्मा की अन्दर की रुचि के, अनुभव का योग जोड़ा है – ऐसे चौथे गुणस्थान में भले भरत चक्रवर्ती जैसा चक्रवर्ती हो, छह खण्ड का राज्य और छियानवें हजार पद्मनी जैसी रानियाँ हों, परन्तु उसने आत्मा के साथ योग जोड़ा है। जो अभेद चिदानन्दस्वरूप की दृष्टि हुई है (इसलिए) सम्पूर्ण संसार से वैराग्य और उदासीनता अन्दर वर्तती है। जिसे भोग की रुचि नहीं है, भोग में सुखबुद्धि नहीं है, क्योंकि भगवान आत्मा का दर्शन हुआ, उसमें आनन्द है – ऐसा रुचि में आया है। आत्मा में अतीन्द्रिय आननद है – (जिसे) ऐसा आत्मदर्शन हुआ, उसे छियानवें हजार नहीं, परन्तु इन्द्राणी के सुख में भी उसे सुख का लालच और सुखबुद्धि नहीं होती। समझ में आया? मोक्खह कारण यहाँ तो भई! दर्शन को मोक्ष का कारण कहा। यहाँ तो उन तीन की बात भी नहीं। जोर देना है न! अनुभव का जोर देना है। आत्मा का अनुभव... उसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र के तीनों अंश आ जाते हैं। ऐसा कहना है। आहा...हा...! भगवान आत्मा शान्त... शान्त... धीरजवान होकर अन्तर के स्वभाव की एकता को अवलम्बन करे, एकता के स्वभाव को अवलम्बन करे – ऐसा जो सम्यग्दर्शन, उसमें सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरण का भाव -चारित्र का अंश भी साथ ही साथ उत्पन्न होता है। इसलिए यहाँ एक सम्यग्दर्शन को ही मोक्ष का कारण कहा है। एक ओर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः (कहते हैं)। एक ओर सम्यग्दर्शन, मोक्ष का कारण (कहते हैं)। समझ में आया? ___यह भगवान आत्मा, अपना सहजानन्दस्वभाव, उस आनन्द के सम्मुख होकर जहाँ दृष्टि हुई और रुचि का परिणमन हुआ, उसमें श्रद्धा – स्वरूप की श्रद्धा, स्वरूप का ज्ञान, और स्वरूप में आंशिक आचरणरूप रमणता (हुई)। उस सम्यग्दर्शन में अथवा अनुभव
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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