SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) १०३ बचाव किया – ऐसा कहते हैं । तुम्हारे विवाद के लिये उसका स्पष्टीकरण किया, हैं। आहा...हा...! भगवान का वचन, शास्त्र का वचन है या नहीं? परन्तु वचन है, बापू! वह किस नय से कहा है ? यहाँ क्या कहते हैं? देखो न! कि आत्मा के शुद्धस्वरूप के सम्यग्दर्शन-ज्ञान -चारित्र के प्रगटपने के बिना जो कुछ तेरे दान, दया, व्रत, भक्ति, पूजा लाख हो.... अन्त में अन्त जो क्रिया कहलाती है – ऐसा असेस कहा है न? अन्त में अन्त तेरे परिणाम – शुभ उपयोग जो हो, वह करे तो भी वह आत्मा को संवर-निर्जरा का कारण नहीं है; वह बंध का ही कारण है। पंचम काल में भी यह और चौथे काल में भी यह । यह सब काल भेद से अन्तर है, ऐसा भी नहीं है। वह भाव तो बंध का ही कारण है। तब भी तू सिद्ध का सुख प्राप्त नहीं कर सकेगा। पुणु संसार भमेसु, पुनः -पुनः..... पुणु का अर्थ किया बारम्बार । पुनः संसार में ही भ्रमण करेगा.... लो, समझ में आया? देखो ! नीचे लिखा है। नीचे, (दूसरे पैराग्राफ की) तीसरी लाईन में । लाईन है - वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि है। वह द्रव्यलिंगी साधु का चारित्र पालता है, शास्त्रोक्त व्रत समिति गुप्ति पालता है, तप करता है, आत्मज्ञानरहित तप से वह महान पुण्य बंध कर नौवें ग्रैवेयक में जाकर अहमिन्द्र हो जाता है।आत्मज्ञान बिना वहाँ से चयकर संसार-भ्रमण में ही रुलता है। आत्मा शुद्ध चिदानन्द का अन्तर आनन्द का विश्वास आये बिना इस विश्वास में चढ़ गया, पुण्य के विश्वास में (चढ़ गया कि) इसके कारण (मुक्ति होगी) । तेरा विश्वास वहाँ गया। वह तो मिथ्या विश्वास है। समझ में आया? मिथ्या विश्वास में चढ़ गया, मिथ्या मार्ग में चढ़ गया। आहा...हा...! शुद्धोपयोग ही वास्तव में मोक्ष का कारण है। इन्होंने तो जरा कठोर किया है, हाँ! इसके अतिरिक्त मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को अपना धर्म न समझकर बंध का करनेवाला अधर्म समझना है।७५ पृष्ठ पर है। अधर्म (पढ़ कर) अन्य शोर मचाते हैं । व्यवहार में शुभ क्रिया को धर्म कहते हैं परन्तु निश्चय से जो बंध करता है वह धर्म नहीं हो सकता। आहा...हा...! वस्तुतः तो इन्होंने वहाँ तक लिया है, जरा यह तो
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy