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________________ शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर उक्त पंक्तियों में निज भगवान आत्मा को सुतीर्थ कहा गया है। निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति होती है; क्योंकि निज भगवान आत्मा को जानने का नाम ही सम्यग्ज्ञान है और निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होने का नाम ही सम्यग्दर्शन है तथा निज भगवान आत्मा में लीन होने का नाम ही सम्यक्चारित्र है। ___ इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकरूपता ही मुक्ति का मार्ग है, संसार-सागर से पार होने (तरने) का एकमात्र उपाय है; अत: येसम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र भी तीर्थं हैं। उक्त संदर्भ में 'धवल' का निम्नांकित कथन दृष्टव्य है - “धम्मो णाम सम्मदसणणाणचरित्ताणि, एदेहि संसार-सायरं तरंतित्ति एदाणि तित्थं । धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। इनसे संसार-सागर से तरते हैं; इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है।" 'बोधपाहुड' में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप निर्मल धर्म को तीर्थ कहा है। 'बोधपाहुड' की मूल गाथा इसप्रकार है - "जं णिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं णाणं। तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण ।' जिनमार्ग में शान्तभाव से धारण किया हुआ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, संयम और तपरूप निर्मल धर्म ही तीर्थ है। ____धवल' और 'बोधपाहुड' के कथन में मात्र इतना ही अन्तर है कि 'धवल' में जहाँ चारित्र को ग्रहण किया है। वहाँ ‘बोधपाहुड' में उसके १. धवला पुस्तक ८, पृष्ठ-९८, सूत्र ४२ की टीका से २. आचार्य कुन्दकुन्द : अष्टपाहुड़, बोधपाहुड़, गाथा २७
SR No.009475
Book TitleShashvat Tirthdham Sammedshikhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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