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________________ शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर ___यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि यह रास्ता कोई समतल भूमि का साफ-सुथरा सुव्यवस्थित रास्ता नहीं है; अपितु पर्वत की चढाई और उतार का ककरीला-पथरीला अव्यवस्थित मार्ग है, जिस पर यात्री नंगे पैरों चढते-उतरते हैं। इसे टुकड़ों में भी पार करना सम्भव नहीं है, अपितु एक बार में ही पूरी यात्रा करना अनिवार्य होता है; क्योंकि ऊपर या बीच में कहीं भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ ठहरा जा सके या रात बिताई जा सके। यदि ऐसी कोई व्यवस्था की भी जावे, तब भी कोई व्यक्ति वहाँ ठहरेगा नहीं; क्योंकि सभी यात्री पर्वत पर मल-मूत्र का क्षेपण करना पाप समझते हैं। इतना सबकुछ होने पर भी प्रतिदिन हजारों यात्री इस पर्वत पर सिद्धों की वंदना करने जाते हैं और भक्तिभाव से वंदना करते हैं; भावना के बल से सबकुछ सहज सम्पन्न हो जाता है। यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि जब छठे काल के अन्त में प्रलय होता है तो सबकुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह कहना कैसे सम्भव है कि यह स्थान वही है; जहाँ से अनन्त तीर्थंकर मोक्ष गये हैं। प्रलय के उपरान्त भी कुछ चिन्ह अवशेष रहते हैं, जिनके अनुसार इन्द्र अयोध्या और सम्मेदशिखर को पुनः व्यवस्थित करता है। अत: यह सुनिश्चित ही है कि यह वही स्थान है, जहाँ से अनन्त तीर्थंकरों का मोक्ष सुनिश्चित है। इसप्रकार की शंका तीर्थंकरों के मुक्तिस्थल के संदर्भ में भी की जाती है; पर उक्त संदर्भ में भी कोई शंका-आशंका की गुंजाइश नहीं है क्योंकि जिस स्थान विशेष से तीर्थंकर मोक्ष जाते हैं; वहाँ भी इन्द्र निर्वाण पूजा के लिए चिन्ह बना देता है। आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में नेमिनाथ भगवान की स्तुति
SR No.009475
Book TitleShashvat Tirthdham Sammedshikhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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