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________________ 263 गाथा १४४ ... 'पहले कहा था कि मतिज्ञानतत्त्व को आत्मसन्मुख करना और यहाँ कहते हैं कि श्रुतज्ञानतत्त्व को भी आत्मसन्मुख ढालना । अहाहा ! इसमें कितना पुरुषार्थ है । सम्पूर्ण दिशा ( पर से स्वद्रव्य की ओर ) पलटने की बात है । अब कहते हैं कि मतिज्ञान व श्रुतज्ञान के आत्मसन्मुख होने पर जो आत्मा का अनुभव होता है, उसमें विकल्पों का अत्यन्त अभाव है। 'मैं ऐसा हूँ, ऐसा नहीं हूँ' - ऐसे विकल्पों को भी जहाँ अवकाश नहीं रहता, तो फिर पर के कर्तृत्व की तो बात ही कहाँ रही ? अत्यन्त विकल्परहित होने पर आत्मा तत्काल निजरस से ही प्रगट होता है। अन्तर में दृष्टि पड़ी, ज्ञान की दशा ज्यों ही ज्ञाता की ओर ढली, उसी क्षण भगवान आत्मा निजरस से प्रगट हो जाता है । निजरस अर्थात् ज्ञानरस, आनन्दरस, शान्तरस, समरस, वीतरागरस ऐसे निजरस से भगवान आत्मा तत्काल प्रसिद्ध हो जाता है। - पर के या विकल्पों के आश्रय से सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता, किन्तु अन्तर में स्वभावसन्मुख होने पर आत्मा तत्काल निजरस से ही प्रगट होता है। त्रिकाली ध्रुव - ऐसे द्रव्य के सन्मुख होने पर निजरस से ही आत्मा तत्काल प्रगट हो जाता है, आदि-मध्य-रहित, अनादि - अनन्त, परमात्मरूप समयसार उसी समय सम्यकतया श्रद्धा व ज्ञान का विषय बन जाता है, ज्ञात हो जाता है। आत्मा पहले नहीं था और अब हो गया हो ऐसा नहीं है। अभी तो मात्र पर्याय में प्रगट - प्रसिद्धि हुई है। जो है, उसी की प्रगट- प्रसिद्धि होती है । - दिगम्बर संत कहते हैं कि भगवान तेरी वर्तमान मतिज्ञान व श्रुतज्ञान की पर्याय पर की ओर झुकी है, इसकारण तुझे परपदार्थ की प्रसिद्धि होती है। अब तू स्व-पदार्थ की प्रसिद्धि के लिए मतिज्ञान व श्रुतज्ञान के तत्त्व को अन्तर्वभाव की ओर झुकाकर स्वसन्मुख हो, जिससे तेरा आत्मा निजरस से ही पर्याय में प्रगट होगा । आत्मा निर्विकल्प वीतरागभाव से ही प्रगट होता है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३६३-३६४ २. वही, पृष्ठ ३६४. ३. वही, पृष्ठ ३६५
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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