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________________ समयसार गाथा १४४ - यह गाथा कर्ताकर्माधिकार की अन्तिम गाथा है। इसमें पक्षातिक्रान्त संबंधी सम्पूर्ण प्रकरण का समापन है, निष्कर्ष दिया गया है। यही कारण है कि आत्मख्याति में इस गाथा की उत्थानिका इसप्रकार दी गई है - "पक्षातिक्रान्त एव समयसार इत्यवतिष्ठते - यह सुनिश्चित होता है कि पक्षातिक्रान्त ही समयसार है।" पक्षातिक्रान्त को समयसार कहने वाली वह गाथा इसप्रकार है - सम्मइंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं । सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ॥१४४॥ विरहित सभी नयपक्ष से जो वह समय का सार है। है वही सम्यग्ज्ञान एवं वही समकित सार है॥१४४॥ जो सर्वनयपक्षों से रहित कहा गया है, वह समयसार है। इसी समयसार को ही केवल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान - ऐसी संज्ञा (नाम) मिलती है। तात्पर्य यह है कि नामों से भिन्न होने पर भी वस्तु एक ही है। देखो, यहाँ आत्मा को ही, समयसार को ही; सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा जा रहा है, दोनों को एक ही वस्तु बताया जा रहा है। इसकी क्या अपेक्षा है - यह सब टीका में स्पष्ट किया जायगा। इस गाथा की आत्मख्याति टीका में इस गाथा का जो भाव स्पष्ट किया गया है, वह इसप्रकार है - .. . "वास्तव में तो समस्त नयपक्षों के द्वारा खण्डित न होने से जिसका समस्त विकल्पों का व्यापार रुक गया है - ऐसा समयसाररूप भगवान आत्मा ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान नाम को प्राप्त है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन, और सम्यग्ज्ञान समयसाररूप आत्मा से अलग नहीं हैं, अभिन्न ही हैं।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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