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________________ समयसार गाथा १४३ विगत गाथाओं और कलशों में यह बात जोर देकर कहते आ रहे हैं कि समयसार स्वरूप शुद्धात्मा पक्षातिक्रान्त है। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि पक्षातिक्रान्त का वास्तविक स्वरूप क्या है ? यही कारण है कि इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि पक्षातिक्रान्तस्य किं स्वरूपमिति चेत् - यदि कोई ऐसा पूछे कि पक्षातिक्रान्त का क्या स्वरूप है तो उसके उत्तर में यह गाथा कही जा रही है दोह वि णयाण भणिदं जाणदि णवरं तु समय पडिबद्धो । दुक्खं हिदि किंचि वि णयपक्ख परिहीणो ॥ १४३ ॥ दोनों नयों को जानते पर ना ग्रहे नय पक्ष जो । नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे ॥ १४३ ॥ नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ, चित्स्वरूप आत्मा का अनुभव करता हुआ दोनों ही नयों के कथनों को मात्र जानता ही है, किन्तु नयपक्ष को किंचित् मात्र भी ग्रहण नहीं करता । गाथा में यह तो स्पष्ट है ही कि नयपक्ष से रहित ज्ञानी जीव दोनों नयों के कथनों को जानते तो हैं, परन्तु मात्र जानते ही हैं, नयपक्ष को रंचमात्र भी ग्रहण नहीं करते; साथ ही 'समय से प्रतिबद्ध' विशेषण का प्रयोग होने से यह भी संकेत मिलता है कि यह बात आत्मानुभवी ज्ञानी जीवों की ही है। तात्पर्य यह है कि किसी भी नय के विषय को जानने का निषेध नहीं है; परन्तु नयपक्ष में पड़ने का निषेध अवश्य है। - इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है. "जिसप्रकार केवली भगवान विश्व के साक्षीपन के कारण श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार - निश्चयनयपक्षों के स्वरूप को मात्र जानते ही हैं, परन्तु सतत् उल्लसित सहज-विमल - सकल केवलज्ञान के द्वारा सदा स्वयमेव
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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