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________________ 241 गाथा १४२ कोऊ कहै समल विमलरूप कोऊ कहै, " चिदानन्द तैसौई बखान्यौ जैसौ जिनिहीं । बंध्यौ मानै खुल्यो मान दोऊ नैको भेद जानै, सोई ग्यानवंत जीव तत्त्व पायौ तिनिहीं ॥ व्यवहारनय से देखो तो आत्मा बंधा हुआ दिखाई देता है और निश्चयनय से देखने पर प्रतीत होता है कि वह किसी से भी बंधा हुआ नहीं है। एक पक्ष आत्मा को बंधा मानता है और दूसरा कहता है कि सदा ही अबंध है। अपेक्षा समझे बिना ये दोनों ही पक्ष अपनय हैं; कुनय हैं; मिथ्यानय हैं और ये अनादि से ही चले आ रहे हैं। कोई नय आत्मा को समल कहता है, कोई नय अमल कहता है; जिस नय से जैसा कहा है, आत्मा उस नय से वैसा ही है; किन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक नय के कथन का सही अभिप्राय समझता है, उस कथन के प्रयोजन को भलीभाँति पहिचानता है और आत्मा को यथायोग्य बंधा और अबंध मानता है; वही ज्ञानी है और उसी ने तत्त्व को प्राप्त किया है। पाण्डे राजमलजी और कविवर बनारसीदासजी ने उक्त छन्द का जो भाव बताया है, उसके अनुशीलन करने पर निम्नांकित बिन्दु ध्यान में आते हैं - (१) मूल छन्द में तो 'एक नय से बंधा और दूसरे नय से अबंध' - मात्र इतना ही लिखा है, नयों के नामों का उल्लेख नहीं किया है; पर पाण्डे राजमलजी नयों का उल्लेख पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक नयों के रूप में करते हैं और बनारसीदासजी व्यवहार और निश्चय नयों के रूप में करते हैं । (२) राजमलजी पक्षपात का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक वस्तु की अनेक रूप कल्पना करना ही पक्षपात है। वस्तु मात्र का स्वाद आने पर उक्त कल्पना विलीन हो जाती है, आत्मानुभव होने पर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। इसी अवस्था का नाम नयपक्षातीत अवस्था है। इसप्रकार आत्मानुभवी ही नयपक्षातीत है, तत्त्ववेदी है। (३) बनारसीदासजी इस बात पर वजन देते हैं कि जो व्यक्ति दोनों नयों के कथनों के मर्म को समझता है, उनके अभिप्राय को जानता है, प्रयोजन को पहिचानता है; वही ज्ञानवंत है, वही तत्त्ववेदी है, उसने ही तत्त्व को प्राप्त किया है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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