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________________ 221 गाथा १३७-१४० ऐसा माना जाय तो पुद्गल और जीव दोनों ही कर्मत्व को प्राप्त हो जायें, परन्तु कर्मरूप परिणमित तो एक पुद्गलद्रव्य ही होता है, इसकारण जीवभाव के हेतु बिना ही कर्म पुद्गल का परिणाम है। उक्त गाथाओं के भाव को पंडित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यदि यह माना जाय कि जीव और पुद्गलकर्म मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं तो दोनों के राग्रादिरूप परिणाम सिद्ध हो; किन्तु पुद्गलकर्म तो रागादिरूप कभी नहीं परिणम सकता। इसलिए पुद्गलकर्म का उदय जो कि रागादि परिणाम का निमित्त है, उससे भिन्न ही जीव का परिणाम है। - यदि यह माना जाय कि पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य दोनों मिलकर कर्मरूप परिणमते हैं तो दोनों के कर्मरूप परिणाम सिद्ध हो; परन्तु जीव तो कभी भी जड़कर्मरूप नहीं परिणम सकता। इसलिए जीव का अज्ञान परिणाम जो कि कर्म का निमित्त है, उससे अलग ही पुद्गलद्रव्य का कर्म परिणाम है।" उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि जीव के रागादिभाव कार्माणवर्गणा के कर्मरूप परिणमन में निमित्त है तथा कर्म का उदय जीव के आगामी रागादिभावों के होने में निमित्त है; तथापि जीव का रागादिभावरूप परिणमन पूर्णत: जीव का ही है, अकेले जीव का ही है, उसमें कर्म का कुछ भी नहीं है; इसीप्रकार कार्माणवर्गणा का कर्मरूप परिणमन पूर्णतः पुद्गल का ही है, अकेले पुद्गल का ही है, उसमें जीव का कुछ भी नहीं है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "रागादि अज्ञान परिणाम के निमित्तभूत उदयागत पुद्गलकर्म के साथ ही, दोनों एकत्र होकर ही रागादि-अज्ञानं परिणाम होता है - यदि ऐसा तर्क उपस्थित किया जाये तो जिसप्रकार मिले हुये चूना और हल्दी का लाल परिणाम होता है; उसीप्रकार जीव और पुद्गलकर्म दोनों के रागादि अज्ञान परिणाम की आपत्ति आ जावे; परन्तु रागादि अज्ञान परिणाम तो एक जीक के ही होता है; इसलिए पुद्गलकर्म का उदय जो कि जीव के सगादि-अज्ञान परिणाम का निमित्त है, उससे भिन्न ही जीव का परिणाम है। .
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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