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________________ 219 गाथा १३२-१३६ - उस रागादि से नवीन कर्मबंध होता है। इसप्रकार पुराना कर्म नवीन कर्मबंध का कारण होता है। विकार का परिणाम जीव का स्वभाव नहीं है, इसलिए यह कहा है कि पुराना कर्म का उदय नवीन कर्मबंध का हेतु है, परन्तु जो अपने चैतन्यस्वभाव को भूलकर विभावरूप से परिणमते हैं - ऐसे मिथ्यादृष्टियों को ही पुराना कर्म का उदय नवीन कर्मबंध का हेतु बनता है।" प्रश्न - 'द्रव्यप्रत्ययरूप पूर्वकर्म के उदय में मिथ्यात्वादि भावप्रत्यय होंगे और उनके उदयानुसार नवीन द्रव्यकर्मों का बंध होगा। यदि ऐसा माना जाय तो संसार का कभी अभाव ही न होगा और मुक्ति का मार्ग सदा अवरुद्ध ही रहेगा। . उत्तर - इस प्रश्न का उत्तर आचार्य जयसेन ने उक्त गाथाओं की टीका में इसप्रकार दिया है - "इसका भावार्थ यह है कि द्रव्यप्रत्ययों का उदय होने पर यदि यह जीव अपने सहजस्वभाव को छोड़कर रागादि भावप्रत्ययों के रूप में परिणमन करता है, तभी नूतन बंध होता है, केवल द्रव्यप्रत्ययों के उदयमात्र से बंध नहीं होता। जिसप्रकार घोर उपसर्ग होने पर भी पाण्डवादि मुनिराज अपने स्वभाव से च्युत नहीं हुए, रागादिरूप परिणमित नहीं हुए तो उन्हें द्रव्यप्रत्ययों के उदय होने पर भी नवीन बंध नहीं हुआ। इसीप्रकार सर्वत्र समझना चाहिए। ___ यदि द्रव्यप्रत्ययों के उदयमात्र से बंध मान लिया जाय तो फिर सदा संसार ही रहेगा, मुक्ति कभी होगी ही नहीं; क्योंकि संसारी जीवों के कर्म का उदय तो सदा रहता ही है।" उक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि द्रव्यप्रत्ययों के उदय में जब जीव स्वयं विकारीभावों रूप परिणमित होता है, तब कर्मबंधन को प्राप्त होता है; किन्तु जब यह जीव कर्मोदय के विद्यमान रहते हुए भी स्वात्मोन्मुखी पुरुषार्थ करके विकाररूप परिणमित नहीं होता, निर्विकारी रहता है, सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप परिणमन करता है; तब आगामी बंध नहीं होता। अतः आत्मार्थियों को स्वात्मोपलब्धि के लिए सतत् सावधान रहना चाहिए। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ २८८
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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