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________________ 217 गाथा १३२-१३६ के ये भाव पाये जाते हैं। तथा यह भी तो स्पष्ट कर आये हैं कि ज्ञानी के विषयकषाय भी ज्ञानभाव में ही आते हैं और अज्ञानी के व्रत-तपादि भी अज्ञानभाव में ही आते हैं। अतः अब प्रश्न यह होता है कि अविरति आदि को ज्ञानभाव माने या अज्ञानभाव। ___ अरे भाई ! सीधी-सरल बात है कि अज्ञानी के अविरति आदि भाव अज्ञानभाव हैं; क्योंकि वह उन्हें निज के मानता है, निजरूप मानता है, उनका कर्ता-भोक्ता स्वयं को मानता है, जानता है और ज्ञानी के जो भूमिकानुसार अविरति, प्रमाद, कषायादि पाये जाते हैं, वे सभी ज्ञानभाव में ही आते हैं; क्योंकि ज्ञानी का उनमें एकत्व-ममत्व नहीं है, वह उनका कर्ता-भोक्ता अपने को नहीं मानता। यही अन्तर तो है ज्ञानी और अज्ञानी में। ___ यहाँ अज्ञानी के अविरति आदि भावों की चर्चा है। इसकारण उन्हें अज्ञानभाव में शामिल किया जा रहा है। आत्मख्याति टीका और जयचन्दजी के भावार्थ में इस बात के स्पष्ट संकेत है। ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ असंयम का उदय, ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ कषाय का उदय और ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ योग का उदय' - इत्यादि कथन से यह स्पष्ट है कि अज्ञानी का ज्ञान उन्हें अपना जान रहा है। ज्ञानी की पर्याय में भूमिकानुसार विद्यमान अविरति, कषायादि के उदय ज्ञानी के मात्र ज्ञेय बनकर रह जाते हैं, स्वादरूप नहीं होते, ज्ञानी उन्हें अपना नहीं जानता है; यही कारण है कि ज्ञानी का उन्हें जाननेरूप परिणमन ज्ञानभाव में ही आता है। ___ आत्मख्याति टीका के अन्तिम पैरा और जयचन्दजी के भावार्थ में समागत तथ्य भी ध्यान देने योग्य है। उनमें जो कुछ कहा गया है, उसका भाव इसप्रकार भासित होता है - - यद्यपि पुराने पौद्गलिक कर्मों का उदय; उसके निमित्त से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले औपपादिक भाव, विभाव भाव, राग-द्वेषादि परिणाम और उन परिणामों के निमित्त से होनेवाले आगामी द्रव्यकर्मों का बंध - ये तीनों क्रियायें एकसाथ एकसमय में ही सम्पन्न होती हैं, तथापि पौद्गलिक परिणमन पुद्गल
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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