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________________ समयसार अनुशीलन 208 अज्ञानमय ही भाव होते हैं, ज्ञानमय भाव नहीं होते; क्योंकि अज्ञानमयभाव अज्ञानजाति का उल्लंघन नहीं करते।तथा ज्ञानमयभाववाले ज्ञानी के अनेकप्रकार के ज्ञानमय ही भाव होते हैं, अज्ञानमय भाव नहीं होते; क्योंकि ज्ञानमयभाव ज्ञानजाति का उल्लंघन नहीं करते।" इस टीका में यह बताया गया है कि यद्यपि लोहा और सोना - दोनों ही पुद्गल हैं और पुद्गल स्वयं परिणमनस्वभाववाला है; तथापि सोने से सोने के ही आभूषण बनते हैं और लोहे से लोहे के ही; क्योंकि उपादान कारण के अनुसारही कार्य होते हैं - यह नियम है। अत: उपादान कारण के रूप में यदि सोना है तो उससे बननेवाले सभी आभूषण सोनेमय ही होंगे, सोने के ही होंगे। इसीप्रकार यदि उपादान कारण के रूप में लोहा है तो उससे बने सभी औजार लोहमय ही होंगे। __इसीप्रकार यद्यपि ज्ञानी और अज्ञानी - दोनों ही जीव हैं और जीव स्वयं परिणामस्वभाववाला है; तथापि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय ही होते हैं और अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय ही होते हैं; क्योंकि उपादान कारण के अनुसार ही कार्य होते हैं - यह नियम है। अतः उपादान कारण के रूप में यदि ज्ञानी आत्मा है तो उससे होनेवाले सभी भाव ज्ञानमय ही होंगे और यदि उपादान कारण के रूप में अज्ञानी आत्मा है तो उससे होनेवाले सभी भाव अज्ञानमय ही होंगे। - इसप्रकार इस कथन से यह प्रतिफलित हुआ कि यद्यपि सामान्य रूप से आत्मा अपने ज्ञानमय और अज्ञानमय - सभी भावों का कर्ता कहा गया है; क्योंकि वे उसके ही भाव हैं, उसका ही परिणमन है; तथापि जब विशेष भेद करके देखते हैं तो ज्ञानी आत्मा ज्ञानभावों का कर्ता है और अज्ञानी आत्मा अज्ञानभावों का कर्ता है; क्योंकि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय ही होते हैं और अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय ही होते हैं। - इन गाथाओं के भाव का स्पष्टीकरण जयचंदजी छाबड़ा ने भावार्थ में इसप्रकार किया है -
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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