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________________ समयसार अनुशीलन 204 - है अथवा भोगाभिलाषरूप है अथवा चारित्रमोह के उदय क्रोध, मान, माया, लोभरूप है; वह सभी परिणाम ज्ञानजाति में घटता है; कारण कि जो कोई परिणाम है, वह संवर-निर्जरा का कारण है, ऐसा ही कोई द्रव्यपरिणमन का विशेष है। मिथ्यादृष्टि का द्रव्य अशुद्धरूप परिणमा है; इसलिये मिथ्यादृष्टि का परिणाम अनुभवरूप तो होता ही नहीं। इसकारण सूत्रसिद्धान्त के पाठरूप है अथवा व्रत-तपश्चरणरूप है अथवा दान, पूजा, दया, शीलरूप है अथवा भोगाभिलाषरूप है अथवा क्रोध, मान, माया, लोभरूप है - ऐसा समस्त परिणाम अज्ञानजाति का है; क्योंकि बन्ध का कारण है, संवर-निर्जरा का कारण नहीं है। द्रव्य का ऐसा ही परिणमनविशेष है।" उक्त कथन में पाण्डे राजमलजी ज्ञानी के क्रोधादिभावों एवं भोगाभिलाषा को भी ज्ञानभाव में घटित कर रहे हैं और अज्ञानी के व्रत-तपश्चरण एवं दानपूजादिभावों को अज्ञानभावों में घटित कर रहे हैं। ___ पाण्डे राजमलजी के उक्त कथन को आधार बनाकर पंडित कविवर बनारसीदासजी ने उक्त छन्दं का भावानुवाद इसप्रकार किया है - . (सवैया इकतीसा) दया-दान-पूजादिक विषय-कषायादिक, दोऊ कर्मबंध पै दुहू को एक खेतु है । ग्यानी मूढ़ करम करत दीसे एक से पै, परिणामभेद न्यारी-न्यारौ फलदेतु है ॥ ग्यानबंत करनी करै पै उदासीन रूप, ममता न धरै तातै निरजरा कौ हेतु है । वह करतूति मूढ़ करै पै मगनरूप, ___ अंध भयो ममता सौ बंधफल लेतु है ॥ दया, दान और पूजादिक पुण्यभाव तथा विषय-कषायादिक पापभाव - दोनों ही भाव कर्मबंधरूप हैं, कर्मबंध करनेवाले हैं और दोनों भावों का उत्पत्ति
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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