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________________ 201 गाथा १२६-१२७ कलश के अर्थ पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि इस प्रश्न में क्या दम है कि ज्ञानी के भाव ज्ञानमय और अज्ञानी के भाव अज्ञानमय क्यों होते हैं ? पर गहराई में जाते हैं तो यह भाव भासित होता है कि दया-दान-भक्ति आदि के शुभभाव तथा विषय-भोगादि के अशुभभाव यदि ज्ञानी के हों तो उन्हें ज्ञानमयभाव कहना और ये ही भाव यदि अज्ञानी के हों तो इन्हीं भावों को अज्ञानमय कहना कहाँ तक उचित है ? अज्ञानी के उक्त भावों को अज्ञानमय कहकर बंध के कारण बताना और ज्ञानी के उक्त भावों को ही ज्ञानमय कहकर वे बंध के कारण नहीं है - ऐसा कहना क्या न्याय संगत है ? वास्तविक प्रश्न यह है। ___ पाण्डे राजमलजी ने कलश टीका में इस कलश का अर्थ करते हुए इसप्रकार के संकेत दिये हैं। यही कारण है कि बनारसीदासजी ने इस कलश का भावानुवाद इसप्रकार किया है - ( अडिल्ल छन्द) ग्यानवंत को भोग निरजरा हेतु है, अग्यानी को भोग बंधफल देतु है ॥ यह अचरज की बात हिये नहिं आवही, पूछ कोऊ सिष्य गुरू समझावही ॥ 'ज्ञानी के भोग तो निर्जरा के कारण हैं और अज्ञानी के लिए वही भोग बंध के कारण हैं' - यह बात तो आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है। यह बात मेरे हृदय में नहीं बैठती है, इसमें मुझे अन्याय भासित होता है; क्योंकि जो भाव अज्ञानी के लिए बंध के कारण हैं, वे ही भाव ज्ञानी के लिए निर्जरा के कारण कैसे हो सकते हैं ? शिष्य द्वारा इसप्रकार का प्रश्न उपस्थित करने पर गुरुजी उसे समझाते हैं। इस प्रश्न का उत्तर आगामी गाथाओं में दिया जा रहा है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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