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________________ 199 गाथा १२६-१२७ स्वपर का भेदज्ञान न होने से यह मानता है कि 'यह राग-द्वेषरूप मलिन उपयोग ही मेरा स्वरूप है - वही मैं हूँ।' इसप्रकार राग-द्वेष में अहंबुद्धि करता हुआ अज्ञानी अपने को रागी - द्वेषी करता है; इसलिए वह कर्मों को करता है। इसप्रकार अज्ञानमय भाव से कर्मबन्ध होता है। ज्ञानी के भेदज्ञान होने से वह ऐसा जानता है कि 'ज्ञानभाव शुद्ध उपयोग है, वही मेरा स्वरूप है - वही मैं हूँ; राग-द्वेष कर्मों का रस है, वह मेरा स्वरूप नहीं है।' इसप्रकार राग-द्वेष में अहंबुद्धि न करता हुआ ज्ञानी अपने को रागीद्वेषी नहीं करता, केवल ज्ञाता ही रहता है, इसलिए वह कर्मों को नहीं करता । इसप्रकार ज्ञानमयभाव से कर्मबन्ध नहीं होता । " - उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं, जो इसप्रकार हैं "ज्ञानी का ज्ञानमय परिणाम है, इसका अर्थ भी यही है कि ज्ञानी का वीतरागतामय परिणाम है। उसकी दृष्टि वीतरागी हुई है, ज्ञान वीतरागी हुआ है एवं आचरण भी वीतरागी हुआ है। ज्ञानी के सर्वभाव वीतरागी है, इसकारण, ज्ञानी वीतरागभाव का ही कर्त्ता है और वीतरागभाव उसका कर्म है। परन्तु जो व्यवहाररत्नत्रय का राग होता है, ज्ञानी उसका कर्त्ता नहीं है । ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय ही होते हैं। व्यवहाररत्नत्रय का जो राग होता है, उसे ज्ञानी मात्र जानता है, किन्तु वह राग ज्ञानी का कार्य नहीं है। प्रश्न - ज्ञानी को यथापदवी राग तो आता है न ? उत्तर - हाँ, देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति, पूजा, व्रत, दानादि का राग ज्ञानी को भी भूमिकानुसार आता है, परन्तु ज्ञानभाव से परिणमित ज्ञानी के ज्ञान परिणमन से वह राग भिन्न रह जाता है। 'अपना चैतन्यस्वरूप राग से भिन्न है ' - ऐसा भेदज्ञान प्रगट हो जाने से ज्ञानी को जो शुभाशुभ राग आता है, वह उसका ज्ञाता रहता है, कर्त्ता नहीं बनता । ज्ञानी को राग की रुचि एवं उसका स्वामित्व नहीं है । राग के स्वामीपने से नहीं परिणमता ज्ञानी मात्र अपने शुद्ध १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ २५० २. वही, पृष्ठ २५०
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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