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________________ समयसार अनुशीलन 396 ( हरिगीत ) अज्ञान से ही भागते मृग रेत को जल जानकर । अज्ञान से ही डरे तम में रस्सी विषधर मानकर ॥ ज्ञानमय है जीव पर अज्ञान के कारण अहो । बातोद्वेलित उदधिवत कर्ता बने आकुलित हो ॥ ५८॥ दूध जल में भेद जाने ज्ञान से बस हंस ज्यों । सद्ज्ञान से अपना-पराया भेद जाने जीव त्यों ॥ जानता तो है सभी करता नहीं कुछ आतमा । चैतन्य में आरूढ़ नित ही यह अचल परमातमा ॥ ५९॥ ( अडिल्ल छन्द ) उष्णोदक में उष्णता है अग्नि की । और शीतलता सहज ही नीर की ॥ व्यंजनों में है नमक का क्षारपन । ज्ञान ही यह जानता है विज्ञजन ॥ क्रोधादिक के कर्तापन को छेदता । अहंबुद्धि के मिथ्यातम को भेदता ॥ इसी ज्ञान में प्रगटे निज शुद्धात्मा । अपने रस से भरा हुआ यह आतमा ॥६०॥ ( सोरठा ) करे निजातम भाव, ज्ञान और अज्ञानमय । करे न पर के भाव, ज्ञानस्वभावी आतमा ॥६१॥ ज्ञानस्वभावी जीव, करे ज्ञान से भिन्न क्या ? कर्ता पर का जीव, जगतजनों का मोह यह ॥६२॥ ( दोहा ) यदी पौद्गलिक कर्म को करे न चेतनराय । कौन करे - अब यह कहें सुनो भरम नश जाय ॥६३॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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