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________________ 385 गाथा १६१-१६३ मोहरूपी मदिरा के पान से उत्पन्न भ्रम रस के भार से शुभाशुभ कर्म के भेदरूपी उन्माद को नचानेवाले समस्त शुभाशुभ कर्मों को अपने ही बल द्वारा जड़मूल से उखाड़कर अज्ञानरूपी अंधकार को नाश करनेवाली सहज विकासशील, परमकला केवलज्ञान के साथ क्रीड़ा करनेवाली अत्यन्त सामर्थ्य युक्त ज्ञानज्योति प्रगट हुई। यह कलश पुण्यपापाधिकार का अन्तिम कलश है। इसलिये इसमें अधिकार के अन्त में होनेवाले मंगलाचरण के रूप में उसी ज्ञानज्योति का स्मरण किया गया है, जिसका स्मरण आरंभ से ही मंगलाचरण के रूप में करते आ रहे हैं। इस कलश में समागत सभी विशेषण ज्ञानज्योति की महिमा बढ़ाने वाले हैं। हाँ, यह बात अवश्य है कि पुण्यपापाधिकार का समापन कलश होने से यहाँ उस ज्ञानज्योति को स्मरण किया गया है, जिसने शुभ और अशुभ कर्म में भेद मानने रूप अज्ञान का नाश किया है। इसप्रकार यहाँ पुण्यपापाधिकार समाप्त हो रहा है।अत:आचार्य अमृतचन्द्रदेव अधिकार की समाप्ति का सूचक वाक्य लिखते हैं जो इसप्रकार है - "इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम् । पुण्य-पापरूप से दो पात्रों के रूप में नाचने वाला कर्म अब एक पात्ररूप होकर रंगभूमि में से बाहर निकल गया।" ___ यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि इस ग्रन्थराज को यहाँ नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस पुण्यपापाधिकार में कर्मरूपी एक पात्र पुण्य और पाप - ऐसे दो वेष बनाकर रंगभूमि में प्रविष्ट हुआ था; किन्तु जब वह सम्यग्ज्ञान में यथार्थ भासित हो गया तो वह नकली वेष त्यागकर अपने असली एक रूप में आ गया और रंगभूमि से बाहर निकल गया। __ अधिकार के अन्त में पण्डित जयचंदजी छाबड़ा प्रत्येक अधिकार के समान यहाँ भी एक छन्द लिखते हैं, जिसमें अधिकार की समस्त विषयवस्तु को समेट लिया गया है। वह छन्द इसप्रकार है -
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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