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________________ समयसार अनुशीलन 380 अब आगामी कलश में कहते हैं कि कर्मनय और ज्ञाननय के एकान्त पक्षपाती अज्ञानी जीव संसार-सागर में डूबते हैं और इनका बेलेंस बनाकर चलनेवाले स्याद्वादी संसार-सागर से पार होते हैं। कलश मूलतः इसप्रकार है - (शार्दूलविक्रीडित ) मग्नाः कर्मनयावलंबनपरा ज्ञानं न जानंति यत् । ' मग्नाः ज्ञाननयैषिणोऽपि यदति स्वच्छंदमंदोद्यमाः॥ विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंतः स्वयं । ये कुर्वति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च ॥१११॥ (हरिगीत ) . कर्मनय के पक्षपाती ज्ञान से अनभिज्ञ हों। ज्ञाननय के पक्षपाती आलसी स्वच्छंद हों ॥ जो ज्ञानमय हो परिणमित परमाद के वश में न हों। कर्म विरहित जीव वे संसार-सागर पार हों ॥ १११॥ कर्मनय के अवलंबन में तत्पर कर्म के पक्षपाती जीव संसार-सागर में डूबे हुए हैं; क्योंकि वे ज्ञान (आत्मा) को नहीं जानते और ज्ञाननय के इच्छुक पक्षपाती जीव भी डूबे हुये हैं; क्योंकि वे स्वच्छंदता से अत्यन्त मन्द उद्यमी हैं। तात्पर्य यह है कि वे स्वरूप प्राप्ति का पुरुषार्थ नहीं करते और विषयकषाय में वर्तते हैं। किन्तु जो जीव निरन्तर ज्ञानरूप होते हुये ज्ञानरूप परिणमित होते हुये कर्म नहीं करते, शुभाशुभ कर्मों से विरक्त रहते हैं और कभी प्रमाद के वश भी नहीं होते। वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं। उक्त कलश का भाव पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में विस्तार से स्पष्ट करते हैं; जो इसप्रकार है - "यहाँ सर्वथा एकान्त अभिप्राय का निषेध करते हैं; क्योंकि सर्वथा एकान्त अभिप्राय ही मिथ्यात्व है। कितने ही लोग परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्मा को तो जानते नहीं और व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्ररूप क्रियाकाण्ड के आडम्बर को मोक्ष का कारण
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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