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________________ 375 अथवा सम्यक्त्वादि से विरुद्ध होने से मिथ्यात्वादि को पाप का अधिकार कहा है; क्योंकि व्यवहाररत्नत्रय का शुभराग सम्यक्रत्नत्रय के वीतरागी परिणाम से विरुद्ध होने से पाप है। इसकारण यह पाप अधिकार चलता है - ऐसा कहा गया है।' आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने भी प्रवचनसार की ७७वीं गाथा में कहा है - 'पुण्य व पाप में कोई अन्तर नहीं है - ऐसा जो नहीं मानता, वह मोहमिथ्यात्व से आच्छादित है। अथवा पुण्य व पाप में अन्तर नहीं होते हुए भी जो उन दोनों में अन्तर है - ऐसा मानता है, वह मोह से मिथ्यात्व से आच्छादित रहता हुआ अपार संसार में डोलता है। पुण्य व पाप दोनों ही सामान्यरूप से बन्धरूप होने पर भी जो पुण्य को अच्छा व पाप को बुरा मानता है, वह घोर संसार में रखड़ेगा।' अहो! मात्र कुन्दकुन्द ही नहीं, सर्व दिगम्बर संत इस सनातन वीतरागी जैनदर्शन के प्रवाह का ही पोषण करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द आज से दो हजार वर्ष पूर्व हुए, आचार्य अमृतचंद्र उनके बाद आज से एक हजार वर्ष पूर्व हुए तथा आचार्य जयसेन आज से ९०० वर्ष पूर्व हुए अर्थात् आचार्य अमृतचन्द्र से १०० वर्ष बाद आचार्य जयसेन हुए। आचार्यों में काल का इतना अन्तर होते हुए भी सभी दिगम्बर संतों का एक ही कथन है कि देव-गुरु-शास्त्र की व्यवहारश्रद्धा, बारह व्रतों व पाँच महाव्रतों का भाव तथा शास्त्रों का परलक्ष्यी ज्ञान ये सभी निश्चय की अपेक्षा अर्थात् स्वभाव से पतित करानेवाले है।" उक्त कथनों से यह सुनिश्चित ही है कि एक प्रकार से पुण्य भी पाप ही है, मुक्तिमार्ग में पाप के समान ही हेय है, त्याज्य है और उसे मुक्ति का कारण मानना अज्ञान है, मिथ्यात्व है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १७५-१७६
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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