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________________ 373 गाथा १६१-१६३ "शुभक्रियारूप, अशुभक्रियारूप, अन्तर्जल्परूप, बहिर्जल्परूप इत्यादि करतूतिरूप क्रिया अथवा ज्ञानावरणी पुद्गल का पिंड, अशुद्ध रागादिरूप जीव के परिणाम - ऐसा कर्म जीवस्वरूप का घातक है, ऐसा जानकर आमूलचूल त्याज्य है।" ___ कोई आशंका करेगा कि मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन; ज्ञान, चारित्र इन तीनों का मिला हुआ है; पर यहाँ ज्ञानमात्र को मोक्षमार्ग कहा - ऐसा क्यों कहा? उसका समाधान ऐसा है - शुद्धस्वरूप ज्ञान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र सहज ही गर्भित हैं। इसलिए दोष तो कुछ नहीं, गुण है।" उक्त कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार किया है - ( इकतीसा सवैया ) मुकतिके साधककौं बाधक करम सब, आतमा अनादिकौ करम मांहि लुक्यौ है । एते पर कहै जो कि पाप बुरौ पुन्न भलौ, सोई महामूढ़, मोखमारगसौं चुक्यौ है ॥ सम्यक सुभाउ लिये हियेमैं प्रगट्यौ ग्यान, ऊरध उमंगि चल्यौ काहूपै न रुक्यौ है । आरसीसौ उज्जल बनारसी कहत आपु, कारनसरूप है कै कारजकौं ढुक्यौ है ॥ मुक्ति के साधक के लिए सभी कर्म बाधक ही हैं; क्योंकि अनादिकाल से यह आत्मा कर्मों में ही तो छुपा हुआ है। यह बात सुनिश्चित होने पर भी कोई कहता है कि पापकर्म बुरा है और पुण्यकर्म भला है; किन्तु ऐसा कहने वाला महामूर्ख है और मुक्तिमार्ग से चूका हुआ है, विमुख है। जब सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान उमंग के साथ आगे बढ़ता है तो किसी के रोके रुकता नहीं। ___ बनारसीदासजी कहते हैं कि आरसी (दर्पण) के समान उज्ज्वल वह ज्ञान स्वयं कारणस्वरूप होकर कार्यरूप परिणमित हो जाता है, सिद्धदशा को प्राप्त कर लेता है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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