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________________ 191 गाथा १२१-१२५ _ स्वयं अपरिणमित पदार्थ को दूसरे के द्वारा परिणमित कराना शक्य नहीं है; क्योंकि वस्तु में जो शक्ति स्वतः न हो, उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। तथा स्वयं परिणमित होने वाले पदार्थ को अन्य परिणमन कराने वाले की अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखती। इसप्रकार दोनों ही पक्षों से यह बात सिद्ध नहीं होती कि क्रोधादिरूप पुद्गलकर्म जीव को क्रोधादिभावरूप परिणमित कराता है। अतः यही ठीक है कि जीव परिणमनस्वभाववाला स्वयं ही हो। ऐसी स्थिति में जिसप्रकार गरुड़ के ध्यानरूप परिणमित मंत्रसाधक स्वयं गरुड़ है; उसीप्रकार अज्ञानस्वभावयुक्त क्रोधादिरूप जिसका उपयोग परिणमित हुआ है, ऐसा जीव स्वयं ही क्रोधादि है। इसप्रकार जीव का परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ।" उक्त सम्पूर्ण कथन में न केवल यह कहा है कि यह आत्मा स्वयं - क्रोधादिभाव रूप परिणमित होता है, अपितु यह भी कहा है कि क्रोधादिरूप से परिणमित आत्मा स्वयं क्रोध ही है। . ___ यहाँ आपको ऐसा लग सकता है कि आत्मा क्रोध कैसे हो सकता है ? पर बात यह है कि जिस नय से यहाँ आत्मा को क्रोधादि का कर्ता कहा जा रहा है, उसी नय से उसे क्रोध भी कहा जा सकता है; क्योंकि एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व एक नय के ही विषय बनते हैं। तथा जिस नय से आत्मा को क्रोध कहना संभव नहीं है, उस नय से उसे क्रोधादि का कर्ता कहना भी सम्भव नहीं है। इसप्रकार इन गाथाओं में यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा अपनी स्वभाविक परिमाणशक्ति के कारण ही क्रोधादिरूप परिणमित होता है, अन्य द्रव्य के कारण नहीं है। । इसी बात को आगामी कलश में व्यक्त किया गया है, जो इसप्रकार है ( उपजाति) स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्तिः। । तस्यां स्थितायां स करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता ॥६५॥
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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