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________________ 321 गाथा १४६-१४९ सप, दान और पूजादिक करता है, वह परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करता है - ऐसा भावार्थ है। इसलिए कुशीलवाले शुभाशुभकर्मों के साथ मानसिक राग मत करो और बहिरंग वचन-कायगत संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से अपनी स्वतंत्रता का, निर्विकल्प समाधि का, प्रयोजनभूत कार्य का और स्वाधीन आत्मसुखं का नाश नियम से होता है।" आचार्यदेव के उक्त आदेश के बाद ऐसा कौन है जो शुभाशुभभावों को और पुण्य-पापकर्मों को उपादेय मानेगा, मुक्ति का मार्ग मानेगा? . स्वभाव के सामर्थ्य को देख ! देह में विराजमान, पर देह से भिन्न एक चेतनतत्त्व है। यद्यपि उस चेतनतत्त्व में मोह-राग-द्वेष की विकारी तरंगें उठती रहती हैं ; तथापि वह ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व उनसे भिन्न परमपदार्थ है, जिसके आश्रय से धर्म प्रगट होता है। उस प्रगट होनेवाले धर्म को सम्यग्दर्शनज्ञान और चारित्र कहते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र दशा अन्तर में प्रगट हो, इसके लिए परमपदार्थ ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व की अनुभूति अत्यन्त आवश्यक है। उस अनुभूति को ही आत्मानुभूति कहते हैं । वह आत्मानुभूति जिसे प्रगट हो गई, 'पर' से भिन्न चैतन्य आत्मा का ज्ञान जिसे हो गया, वह शीघ्र ही भव-भ्रमण से छूट जायेगा। 'पर' से भिन्न चैतन्य आत्मा का ज्ञान ही भेदज्ञान है। यह भेदज्ञान और आत्मानुभूति सिंह जैसी पर्याय में भी उत्पन्न हो सकती है और उत्पन्न होती भी है। अतः हे मृगराज ! तुझे इसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। हे मृगराज ! तू पर्याय की पामरता का विचार मत कर, स्वभाव के सामर्थ्य की ओर देख ! - तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ४७
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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