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________________ 319 गाथा १४६-१४९ रमणतारूप निर्मल शान्त वीतरागी परिणति को छोड़कर जो दया, दानादिक के शुभभाव होते हैं, उन्हें भी यहाँ कुशील कहा है। बात थोड़ी कड़क है, किन्तु सत्य है; क्योंकि यह जीव की स्वभावमय शुद्ध परिणति नहीं है। इन व्रत, नियम, शील, तप आदि में जो तप कहा गया है, उसमें ध्यान नामक अंतरंग तप भी आ गया। विकल्परूप ध्यान भी शुभकर्म होने से कुशील है - ऐसा यहाँ कहा जा रहा है। वास्तविक ध्यान तो शुद्धस्वरूप में एकाग्र होकर ठहरना है, परन्तु जिसे आत्मा की प्रतीति ही नहीं हुई हो, वह कहाँ/ किसमें ठहरेगा? अपना आत्मा जो ध्रुव नित्यानन्द चिदानन्दस्वरूप है, जब वह अभी अनुभव में, वेदन में या दृष्टि में ही नहीं आया; तो उसमें मग्न होकर ठहरने रूप ध्यान कहाँ से होगा? बापू! ध्यान के ये बाह्य विकल्प हैं, ये तो राग है; अतः कुशील हैं, बंधन के कारण हैं। ___ 'उदय में आती हुई - समीप में आती हुई कर्मप्रकृति' का आशय यह है कि शुभकर्म के उदय में शुभभाव होता है और अशुभकर्म के उदय में अशुभभाव होता है - इसे ही कर्मप्रकृति का समीप आना कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि शुभाशुभ प्रकृति के उदय के काल में जो शुभाशुभभाव होते हैं, उन्हें ज्ञानी जीव बुरा जानते हैं तथा उन्हें बुरा जानकर उसके साथ राग या संसर्ग नहीं करते। ___ यहाँ कोई कह सकता है कि यह तो जड़ कर्म की बात है, शुभाशुभ भाव की नहीं; परन्तु भाई! ऐसा नहीं है। १५३वीं गाथा की टीका में बताया है कि व्रत, तप, नियम, शीलादि सब शुभकर्म हैं। रागरूपी कार्य को वहाँ शुभकर्म कहा है, जड़कर्म तो इनसे भिन्न ही हैं। भावकर्म का निमित्त जो कर्मप्रकृति, उनके उदय में आने पर जो शुभाशुभभाव होते हैं, उन्हें ज्ञानी बुरा जानते हैं, जड़ कर्मप्रकृतियों को नहीं। १४५वीं गाथा में भी कर्म शब्द है। उसके टीका में जो चार अर्थ किये हैं, उनमें एक अर्थ जड़कर्म का हेतु जो शुभाशुभभाव उसे ही कर्मरूप से ग्रहण किया है।' १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ ४९ २. वही, पृष्ठ ५१-५२ ।। ३. वही, पृष्ठ ५८
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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