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________________ 299 पुण्यपापाधिकार रागभाव ही और रागभाव होने से दोनों एक ही हैं। यही कारण है कि कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस अधिकार का नाम 'पुण्यपापएकत्वद्वार' ही रखते हैं तथा इस अधिकार की विषयवस्तु को स्पष्ट करने वाला प्रतिज्ञावाक्य रूप छन्द भी इसप्रकार लिखते हैं - (दोहा) करता किरिया करमको, प्रगट वखान्यौ मूल । अब वरनौं अधिकार यह पाप पुन समतूल ॥ कर्ता, कर्म और क्रिया का मूल स्वरूप स्पष्ट करके अब पुण्य और पाप को समान बताने वाले इस अधिकार का वर्णन करते हैं। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इस अधिकार की टीका आरंभ करते समय मंगलाचरण के रूप में जो छन्द लिखते हैं, वह इसप्रकार है - (दोहा) पुण्य-पाप दोऊ करम, बन्धरूप दुर् मानि । शुद्ध आतमा जिन लह्यो, नमूं चरण हित जानि ॥ जिन जीवों ने पुण्य और पाप - दोनों कर्मों को बन्धरूप और दुष्ट जानकर निज शुद्ध आत्मा को प्राप्त किया है; हित रूप जानकर मैं उनके चरणों की वन्दना करता हूँ। इस अधिकार को आरंभ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में जो वाक्य लिखते हैं, वह इसप्रकार है - "अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रवशति - अब एक ही कर्म पुण्य और पाप - इन दो पात्रों के रूप में रंगमंच पर प्रवेश करता है।" ___ ध्यान रहे यहाँ पात्र (अभिनेता) एक है और उसने रूप दो धारण कर रखे हैं। जिसप्रकार एकपात्रीय नाटकों में एक ही पात्र अनेक रूपों में बात करता है; उसीप्रकार यहाँ एक ही कर्म पुण्य और पाप - इन दो रूपों में प्रस्तुत हो रहा है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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