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________________ पुण्यपापाधिकार जीवाजीवाधिकार में वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त भावों से भगवान आत्मा का एकत्व और ममत्व तथा कर्ताकर्माधिकार में उन्हीं भावों से कर्तृत्व और भोक्तृत्व छुड़ाया है। ___ इसप्रकार अबतक भगवान आत्मा को परपदार्थ और उनके आश्रय से अपने ही आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेषादि भावों से एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व छुड़ाकर आत्मसम्मुख करने का प्रयास किया गया है। अब इस पुण्यपापाधिकार में यह बताते हैं कि मुक्ति के मार्ग में पाप के समान ही पुण्य भी हेय है। यद्यपि पापभाव के समान पुण्यभाव भी आत्मा की विकारी पर्याय होने से आत्मा नहीं है, आत्मा से भिन्न है, आस्रवभाव है, बंधभाव है और आत्मा को संसारसागर में डुबाने वाला है; तथापि अनादिकालीन मिथ्या मान्यता के कारण अज्ञानी जीवों की इसमें उपादेयबुद्धि बनी रहती है, वे इसे सुख का कारण मानते रहते हैं और पुण्यभाव का कर्ता बनकर अपने आप को भाग्यवान समझते रहते हैं। किसी व्यक्ति ने एक मन्दिर बनवाया, एक धर्मशाला बनवाई। वह अपने इस कार्य से अपने को बहुत ही गौरवान्वित अनुभव करता है, स्वयं को उनका कर्ता-धर्ता मानता है, स्वामी मानता है। ___जब उसे यह समझाया जाता है कि यह मन्दिर, यह धर्मशाला न तो आप हैं, न ये आपके हैं और न आप इनके कर्ता-धर्ता ही हैं; क्योंकि ये तो जड़ हैं, जड़ के परिणमन हैं और आप तो चेतन पदार्थ हो। चेतन जड़ का कर्ताधर्ता कैसे हो सकता है? इनका कर्ता-धर्ता बनने के लिए तो आपको जड़ होना होगा। क्या आप चेतन से जड़ बनना पसन्द करेंगे? यदि नहीं, तो फिर आप इनके कर्ता-धर्ता कैसे हो सकते हैं ?
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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