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________________ 295 गाथा १४४ इस वाक्य का स्पष्टीकरण पंडित जयचंदजी छाबड़ा इसप्रकार करते हैं - "जीव और अजीव दोनों कर्ता-कर्म का वेष धारण करके एक होकर रंगभूमि में प्रविष्ट हुए थे। जब सम्यक् दृष्टि ने अपने यथार्थ दर्शन-ज्ञान से उनके भिन्न-भिन्न लक्षण से यह जान लिया कि वे एक नहीं, किन्तु दो अलग-अलग हैं; तब वे वेष का त्याग करके रंगभूमि से बाहर निकल गये। बहुरूपिया की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि जबतक देखने वाले उसे पहिचान नहीं लेते, तबतक वह अपनी चेष्टाएँ किया करता है, किन्तु जब कोई यथार्थ रूप से पहचान लेता है, तब वह निज रूप को प्रगट करके चेष्टा करना छोड़ देता है। इसीप्रकार यहाँ भी समझना।" यहाँ छाबड़ाजी ने बहुरूपिया का उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि कर्ता-कर्म के वेष में समागत जीव और अजीव ज्ञानज्योति द्वारा पहिचान लिए जाने से वेष त्यागकर रंगभूमि से बाहर हो गये। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा अपनी भाषा टीका के अन्त में सम्पूर्ण अधिकार की विषयवस्तु को समेटते हुए एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार है - (सवैया तेईसा) जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय वने करता सो, ताकरि बन्धन आन तणूं फल ले सुख-दुःख भवाश्रमवासो; ज्ञान भये करता न बने तब बन्ध न होय खुलै परपासो, आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो । यह जीव अनादि अज्ञान के वश होकर विकार उत्पन्न करता हुआ पर का करता बनता है, इसकारण इसे बंध होता है और उसके फलस्वरूप संसार में रहता हुआ सुख-दुःख भोगता है। जब इसे सम्यग्ज्ञान होता है, तब यह पर का कर्ता नहीं बनता, विकार का कर्ता नहीं बनता और इसीकारण बंध भी नहीं होता, यह परपास (पर के बंधन) से मुक्त हो जाता है, मुक्ति को प्राप्त कर लेता है; फिर सदा मुक्ति में ही निवास करता हुआ सदा आत्मा में ही सुविलास करता है, आत्मीक आनन्द को भोगता है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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